शनिवार, 14 मार्च 2009



तुलसी स्वीट्स

जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था कल तक
आज वह दीवार पर टँगा है

जबकि एक कोने में
पानी से भरा जग रखा है यथावत्
प्लेटों में
उसी तरह मिठाइयाँ सजी हुई हैं
सीढ़ियों के नीचे
पूर्ववत जमी है चप्पल-जूतों की धूल
और ऊपर किराएदार के गमलों में
ज्यों के त्यों लहक रहे हैं तरह-तरह के फूल…

लेकिन कल तक
जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था
आज वह
वहाँ
दीवार पर टँगा है

और दिनों की तरह ही
आज भी
इस सड़क से एक नहाई-धोई सुबह गुज़रेगी

आज भी पसीने से लथपथ एक दोपहर
अपना ठेला सड़क किनारे छोड़कर
किसी ट्रक या पेड़ की छाया में सुस्ताने बैठ जाएगा

आज फिर एक अपराह्न
किसी छोटी-मोटी गाड़ी पर
किसी प्रतिमा को स्थापित कर
प्रसाद लुटाते…
रंग-गुलाल उड़ाते प्रेमतला की और निकल जाएगा

आज फिर ताँत की साड़ी में लकदक एक शाम
नाक को रूमाल से ढँके
गली को पार करती हुई मुख्य सड़क पर आएगी
और किसी घरेलू कथा में व्यस्त
बराक मार्केट की और चली जाएगी...

आज फिर
धीरे-धीरे रिक्शे लौट जाएँगे अपने-अपने ठिकाने पर
एक-एक कर दुकनों के होंगे बंद शटर
फिर समूचा शहर
टीवी धारावाहिक और माछेर झोल में डूब जाएगा
और यह कोई नहीं जान पाएगा
कि कल तक
जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था- वहाँ
आज वह अपनी निरीह मुस्कुराहट में कैद
दीवार पर टँगा है

मुझे पता है
कुछ दिनों तक उसकी चप्पलें खोजेंगी उसे
कुछ समय के लिए उसका मौन भी हकलाएगा
कुछ अरसे तक उसकी प्यास तड़पेगी
कुछ रातों तक उसका तकिया भी कछमछाएगा

लेकिन एक दिन
उस माला की खुशबू भी
चुपके से छोड़कर चली जाएगी उसे
एक दिन उसका सामान बरामदे पे आ जाएगा
एक दिन उसका कमरा भी लग जाएगा किराए पर
एक दिन वह स्मृति से भी निकल जाएगा

उसी का समाहार

अगर शहर में होता
तो शायद उधर ध्यान भी नहीं जाता
मगर यह
शहर के कहर से दूर विश्वविद्यालय का परिसर था
जहाँ चाय-बागान से छलकती आती अबाध हरियाली
समूचे परिदृश्य को
स्निग्ध स्पर्श में बदल रही थी
और वहीं पर यह अभूतपूर्व घटना
चुपके से
आकार ले रही थी…

दरअसल हुआ यह था
कि क्वार्टर की ओर जानेवाली खुली सड़क के किनारे
एक वृक्ष था
जिसके नीचे एक आदमी खड़ा था

पहली नज़र में
विह्वल करनेवाला ही दृश्य था यह
क्योंकि आदमी के हाथ में कुल्हाड़ी नहीं थी
इसलिए उसे देखने से लगता था
कि सुबह का भूला शाम को लौट आया है…

कि तभी
उसके पौरुष से
एक धार सहसा उछली
और उसके साथ-साथ रिंग-टोन बजने लगा

यह एक नए क़िस्म का यथार्थ था
जिसके सामने मैं खड़ा था
निहत्था

अलबत्ता घटना एक ही थी
पर सत्य थे कई

पहला सत्य कहता था
कि आदमी का उमड़कर बाहर आ रहा है कुछ
इसलिए बज रहा है

दूसरा सत्य कहता था कि वह बज रहा है
इसलिए उससे फूट रही है
जलधारा

तीसरा सत्य कहता था
कि वह सींच रहा है वृक्ष को

और चौथे सत्य को कहना था
कि यहाँ कर्ता नहीं है कोई बस कुछ हो रहा है…

और जो कुछ हो रहा था
यह ॠचा है उसी का समाहार-

सोने की छुच्छी रूपा की धार।
धरती माता, नमस्कार॥

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