रविवार, 6 दिसंबर 2009

हिजड़े




एक

कहना मुश्किल है कि वे कहाँ से आते हैं

खुद जिन्होंने उन्हें पैदा किया
ठीक से वे भी नहीं जानते उनके बारे में

ज़्यादा से ज़्यादा
पारे की तरह गाढे क्षणों की कुछ स्मृतियाँ हैं उनके पास
जिनकी लताएँ फैली हुई हैं
उनकी असंख्य रातों में

लेकिन अब
जबकि एक अप्रत्याशित विस्फोट की तरह
वे क्षण बिखरे हुए हैं उनके सामने
यह जानकर हतप्रभ और अवाक हैं वे
कि उनके प्रेम का परिणाम इतना भयानक हो सकता है

लेकिन यह कौन कह सकता है
कि सचमुच उनके वे क्षण थे
प्रणति और प्रेम के?

क्या उनके पिताओं ने
पराजय और ग्लानि के किसी खास क्षण में किया था
उनकी माँओं का संसर्ग?

क्या उनकी माँओं की ठिठुरती आत्मा ने
कपड़े की तरह अपने जिस्म को उतारकर
अपने-अपने अनचाहे मर्दों को कर दिया था सुपुर्द?

क्या उनके जन्म से भी पहले
गर्भ में ही किसी ने कर लिया उनके जीवन का आखेट?

दो

वासना की एक विराट गंगा बहती है इस धरती पर
जिसकी शीतलता से तिरस्कृत वे
अपने रेत में खड़े-खड़े
सूखे ताड़-वृक्ष की तरह अनवरत झरझराते रहते हैं

संतूर के स्वर जैसा ही
उनकी चारो ओर
अनुराग की एक अदृश्य वर्षा होती है निरंतर
जिसे पकड़ने की कोशिश में
वे और कातर और निरीह होते जाते हैं

अंतरंगता के सारे शब्द और सभी दृश्य
बार-बार उन्हें एक ही निष्कर्ष पर लाते हैं
कि जो कुछ उनकी समझ में नहीं आता
यह दुनिया शायद उसी को कहती है प्यार

लेकिन यह प्यार है क्या?

क्या वह बर्फ़ की तरह ठंडा होता है?
या होता है आग की तरह गरम?
क्या वह समंदर की तरह गहरा होता है?
या होता है आकाश की तरह अनंत?
क्या वह कोई विस्फोट है
जिसके धमाके में आदमी बेआवाज़ थरथराता है?
क्या प्यार कोई स्फोट है
जिसे कोई-कोई ही सुन पाता है?

इस तरह का हरेक प्रश्न
एक भारी पत्थर है उनकी गर्दन में बँधा हुआ
इस तरह का हरेक क्षण ऐसी भीषण दुर्घटना है
कि उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे

और यह जो गाते-बजाते ऊधम मचाते
हर चौक-चौराहे पर
वे उठा लेते हैं अपने कपड़े ऊपर
दरअसल वह उनकी अभद्रता नहीं
उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है
जिसने उन्हें बनाया है
या फिर नहीं बनाया

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

अकेले ही नहीं



मैं उन कहावतों और दंतकथाओं को नहीं मानता
कि अपनी अंतिम यात्रा में आदमी
कुछ भी नहीं ले जाता अपने साथ

बड़े जतन से जो पृथ्वी
उसे गढकर बनाती है आदमी
जो नदियाँ उसे सजल करती है
जो समय
उसकी देह पर नक्काशी करता है दिन-रात
वह कैसे जाने दे सकता है उसे
एकदम अकेला?

जब पूरी दुनिया
नींद के मेले में रहती है व्यस्त
पृथ्वी का एक कण
चुपके से हो लेता है आदमी के साथ
जब सारी नदियाँ
असीम से मिलने को आतुर रहती हैं
एक अक्षत बूँद
धारा से चुपचाप अलग हो जाती है
जब लोग समझते हैं
कि समय
कहीं और गया होगा किसी को रेतने
अदृश्य रूप से एक मूर्तिकार खड़ा रहता है
आदमी की प्रतीक्षा में।

हरेक आदमी ले जाता है अपने साथ
साँस भर ताप और जीभ भर स्वाद
ओस के गिरने की आहट जितना स्वर
दूब की एक पत्ती की हरियाली जितनी गंध
बिटिया की तुतलाहट सुनने का सुख
जीवन की कुछ खरोंचें,थोड़े दुःख
आदमी ज़रुर ले जाता है अपने साथ-साथ।

मैं भी ले जाउँगा अपने साथ
कलम की निब भर धूप
आँख भर जल
नाखून भर मिट्टी और हथेली भर आकाश
अन्यथा मेरे पास वह कौन सी चीज़ बची रहेगी
कि दूसरी दूनिया मुझे पृथ्वी की संतति कहेगी!


आधार प्रकाशन, पंचकूला द्वारा प्रकाशित
समय को चीरकर(1998)कविता संग्रह से

सोमवार, 31 अगस्त 2009

उसी का समाहार




अगर शहर में होता
तो शायद उधर ध्यान ही नहीं जाता
मगर यह
शहर के कहर से दूर विश्वविद्यालय का परिसर था
जहाँ चाय-बागान से छलकती आती हुई अबाध हरियाली
समूचे परिदृश्य को
स्निग्ध स्पर्श में बदल रही थी
और वहीं पर यह अभूतपूर्व घटना
चुपके से
आकार ले रही थी…

दरअसल हुआ यह था
कि क्वार्टर की ओर जानेवाली खुली सड़क के किनारे
एक पेड़ था
जिसके नीचे एक आदमी खड़ा था

पहली नज़र में
विह्वल करने वाला ही दृश्य था यह
क्योंकि आदमी के हाथ में कुल्हाड़ी नहीं थी
और उसे देखने से लगता था
कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है…

कि तभी
उसके पौरुष से
एक धार सहसा उछली
और उसके साथ रिंग-टोन बजने लगा

यह एक नए किस्म का यथार्थ था
जिसके सामने मैं खड़ा था
निहत्था
अलबत्ता घटना एक ही थी
पर सत्य थे कई

पहला सत्य कहता था
कि आदमी का उमड़कर बाहर आ रहा है कुछ
इसलिए बज रहा है
दूसरा सत्य कहता था कि वह बज रहा है
इसलिए उससे फूट रही है जलधारा
तीसरा सत्य कहता था
कि वह वृक्ष को सींच रहा है
और चौथे सत्य को कहना था
कि यहाँ कर्ता नहीं है कोई
बस कुछ हो रहा है…

और जो कुछ हो रहा था
यह मंत्र है उसीका समाहार-

सोने की छुच्छी,रूपा की धार।
धरती माता, नमस्कार॥

मंगलवार, 23 जून 2009

इस जीवन में


देखकर ही लगता है
कि तुम बहुत आह्त हुए हो

हमेशा की तरह
अपमान की एक और लहर
पिछले असंख्य अपमानों के ज़हर के साथ
एक बार फिर निगल चुकी है तुम्हें
और एक बार फिर
अपनी अटल पीड़ा में असहाय
हतप्रभ और अवाक हो तुम

यद्यपि तुम जानते हो
कि यह
पहली घटना नहीं है तुम्हारे जीवन में
और न ही अंतिम होगी यह

फिर भी तुम्हें एक उम्मीद है खुद से
कि इस जीवन में अपने झरझर दुःख से
कुछ ऐसा रचोगे
कि खत्म होने के बाद भी बचोगे
और अंतत: साबित कर दोगे खुद को
(जैसे खुद को साबित करना
प्रतिशोध का एक नया तरीका हो)

वैसे तुम्हें पता है
कि रचना की रणभूमि में खुद को साबित करना
अपनी केंचुल को उतारते जाना है तब तक
जब तक कि त्वचाहीन शरीर पर
रक्त की बूँदें ही न छलछला आएँ
और शेष रह जाए
सिर्फ उतप्त ह्रदय का विसर्जित होना

लेकिन
यह तुमसे बेहतर और कौन जानता है
कि छोटी से छोटी चीज़ को
उसके असली नाम से पुकारने की ज़िद में
एक आदिम शब्द की आवाज़ के लिए तुम
ऐसे रहते हो उत्कर्ण
जैसे एक भूखा मछुआरा
जलाशय में बंसी डालकर
पहरों
सामने टुकुर-टुकुर ताकता रहता है…

इसलिए
अपने युग के बारे में सोचते हुए
तंदूर के ऊपर सलाखों में
झूलते हुए जो मुर्गे का बिंब
बार-बार तुम्हारे मस्तिष्क में आता है उभरकर
वह तुम्हारी चेतना पर बाज़ार का हमला नहीं है
बल्कि तुम्हारा इतना दुर्निवार
और इतना अंतरंग अंश है वह
जिसे थोड़ा कव्यात्मक बनाकर
तुम अपना रूपक भी नहीं कह सकते

रविवार, 17 मई 2009

पर्यटन


इतनी तेज रफ्तार से चल रही यह दुनिया
इतनी जल्दी-जल्दी
अपने रंग बदल रही यह दुनिया
कि सुबह जगने के बाद
पिछली रात का सोना भी
लगता है समय की पटरी से उतर जाना

रोज दिनारम्भ से पहले
न किसी से कुछ कहना न किसी की सुनना
एक कप चाय के सहारे
घंटा आधा घंटा मेरा चुप रहना
बेतहाशा भागती हुई इस दुनिया के साथ
एक काम चलाउ रिश्ता बनाने के प्रयास हैं मात्र

यों मैं जानता हूँ
कि मेरी गाड़ी छूट चुकी है पिछली रात को ही
मुझे पता है कि मेरे लिए कोई आरक्षित सीट नहीं
पर आदतन यों ही
रोज सुबह के स्टेशन पर खड़ा होकर
मैं करता हूँ उसकी प्रतीक्षा

रोज-रोज की यह प्रतीक्षा
मेरे घर से शहर की ओर जानेवाली एक बैलगाड़ी का नाम है
जिस पर मैं अपने बाल-बच्चे कपड़ा-बस्तर बर्तन-बासन
लस्तम-पस्तम के साथ सवार होकर
जीवन के पर्यटन पर निकला हूँ

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

गड़ेरिया


(नागार्जुन को याद करते हुए)

हवा पानी और आकाश की तरह
दिख सकता है कहीं भी वह

यानी वहाँ भी
जहाँ उसके होने की संभावना सबसे कम है

अपनी आत्मा को तुम अगर
अंदर से बाहर की ओर उलट दो
तो उसके उजड़े हुए वन में तुम्हें वह
एक गाछ के नीचे बैठा दिखेगा निराकांक्ष
अपनी लाठी बजाता हुआ अपनी भेड़ें चराता हुआ…

लेकिन उसे जाने दो
तुम तो आत्मा पर विश्वास नहीं करते
कहते हो कि विज्ञान प्रमाणित नहीं करता उसे

शायद ठीक कहते हो तुम

गड़ेरिये को देखने से बहुत पहले
गर्भ में ही तुम खो चुके अपना आत्म
इसलिए अब धूल की तरह
यहाँ –वहाँ उड़ते फिरते हो…

लेकिन यह
हवा-पानी और आसमान की तरह सच है
कि अपनी भेड़ों से चुपचाप बतियाता हुआ
कहीं भी दिख सकता है वह

सिर्फ गिरिडीह में नहीं
अलवर में भी
रतलाम में ही नहीं
चंडीगढ़ में भी
यहाँ तक कि हयात के सामने रिंगरोड पर भी
अपनी भेड़ों को ढूँढता
और नदियों को पुकारता हुआ
अपने वन के लिए रोता
और ॠतुओं के लिए बिसूरता हुआ दिख सकता है वह

लेकिन तुम उसे देखते कहाँ हो

तुम्हारे नगर की छत से जब उठने लगती है
उसकी भेड़ के गोश्त की गंध
एक अबूझ ज्वरग्रस्त पीड़ा में वह बड़बड़ाने लगता है…

नहीं, वह पागल नहीं है
न जाने इतिहास के किस अध्याय से
हाँका लगाकर लाया हुआ कस्तूरी मृग है वह
और उसका अपराध उसकी निष्कवच मौलिकता है

सात किवाड़ों के भीतर
जब तुम्हारा नगर डूब जाता है
अपने वांछित अंधकार में
अपनी अटूट यातना के थरथर प्रकाश में वह
एक अभिशप्त देवदूत की तरह सड़क पर भटकता रहता है

रविवार, 12 अप्रैल 2009

देह तो आख़िर


देह तो आखिर देह ही है

कौन नहीं जानता
पुरुष के शरीर की बनावट
कौन स्त्री-देह की संरचना से है अनभिज्ञ

लेकिन आजकल जितनी दूर तक नजर जाती है
एक प्रचंड आक्रमण की तरह
देह ही देह नजर आती है

कोई लय नहीं
कोई कोमलता नहीं
ह्रदय के सबसे प्राचीन तट पर
किसी पद-चिह्न को सँजो रखने की विकलता नहीं

देह से परे
किसी अज्ञात आलोक के स्पर्श के लिए
कोई सपना नहीं
ओस में भींगे फूल की तरह
प्रेम से भारी होकर
घास के आगे झुक जाने की कामना नहीं

रेस्त्राँ से लेकर
रूम तक जाने में जितना समय लगता है
अगर कह सकते हैं
तो उतना ही बचा है हमारे युग में
रोमांस

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

दो प्रेम कविताएँ





तुम्हारा चेहरा

शब्दों की नोंक पर खड़ा होकर
मैं लिखता हूँ कविताएँ

न जाने मुझे यह कौन कहता है
कि मेरे तलवे के ही खून से निकलकर कोई रास्ता
तुम्हारे घर तक जाता है

शायद इसीलिए
मेरी भाषा के जल में
लौ की तरह झिलमिलाता तुम्हारा चेहरा
बार-बार नज़र आता है

प्रेम में

प्रेम में आदमी बोलता है निःशब्द
तो धरती समझती है
उसका अर्थ

प्रेम में आदमी पलकें झपकाता है
तो मौसम बदलते हैं

प्रेम में कोई किसी को कह दे
पगली या कि मूर्ख
तो खिलखिला उठता है पूरा समुद्र


दोनों कविताएं ‘समय को चीरकर’(1998) संग्रह से
प्रकाशक:आधार प्रकाशन,पंचकूला, हरियाणा

रविवार, 29 मार्च 2009


क्या आपको याद है ?

कोई नैतिक आग्रह नहीं
कोई राजनीतिक दबाव नहीं
कोई नागरिक अपेक्षा नहीं

एक अंतहीन बड़बड़ाहट
और निरर्थक दावे के घमासान से
किसी तरह बचते हुए
धूल सी उड़नेवाली…पत्ते की तरह झड़नेवाली...
एक सहज इच्छा से भरकर
यह जानने चला आया हूँ आपके पास
कि पिछली बार कब
बारिश में आपने जी भरकर नहाया था ?
और जीवन का
दुर्लभ पुरस्कार पाने की कृतज्ञता में
विनम्रतापूर्वक एक पौधा लगाया था ?

क्या आप बता सकते हैं
कि पिछली बार कब
खुद को छोटा बनाये बगैर आपने
दूसरे को बड़ा बनाया था ?
और अपने स्तर पर
इस दुनिया को थोड़ा कोमल बनाने के लिए
बस्ती की ओर जानेवाली पगडंडी पर से एक काँटा हटाया था ?

क्या आप कह सकते हैं
कि पिछली बार कब
आकाश को बाँहों में भरकर आप
घास की तरह खुले मैदान में सोए थे ?
क्या आपको याद है
कि दूसरे के दुःख में पिछली बार आप कब रोए थे ?

रविवार, 22 मार्च 2009


तुम उसे अब रोक नहीं सकते

सिर्फ उसकी मुक्ति में संभव है तुम्हारी मुक्ति

इसलिए
कुछ आगे बढ़कर
तुम अगर उसे बुला नहीं सकते
तो कम से कम उसके रास्ते से हँट जाओ

इतने युगों से अपने यातना-घर बंद
अन्ततः जान गई है वह
कि चूल्हा बनने में निहित नहीं है उसकी सार्थकता
इसलिए उसकी देह पर अब तुम
अपनी उफनती इच्छाओं को और पका नहीं सकते

सदियों से अपने पदचिन्ह में अनवरत भटकते हुए
अन्ततः पता चल ही गया है उसे
कि तुम्हारी बनाई हुई तमाम नैतिकता
उसे शिकार बनाने का शास्त्र-सम्मत तरीका है सिर्फ़
इसलिए उसके निर्विकल्प समर्पण और सुन्दरता को
हिरण की खाल की तरह
अब तुम अपने बैठक में सजा नहीं सकते

बेशक किसी और ने नहीं
खुद को पहचानने की
स्वंय उसके दु:खों ने दी है उसे दृष्टि
कि पलंग के नीचे या टेबुल पर ग्लास में रखे पानी
और उसकी नियति के बीच-
धरती और आसमान का अन्तर है
इसलिए अब किसी भी क्षण
गटगट पीकर उसे तुम अपनी प्यास बुझा नहीं सकते

यों यह सच है
कि उसके भीतर एक विराट सरोवर है
और यह भी
कि उसकी प्रकृति में ही शुमार है समरपण
लेकिन इससे अलग भी है उसकी दुनिया
इसके परे भी है उसका जीवन

तुम्हारी अनिच्छा के बावजूद
खिड़कियों को भड़भड़ाती हुई बाहर की हवा
पहुँच चुकी है भीतर

फूल और वनस्पति की खुशबू ओढकर
मार्च महीने के आकाश उसके मस्तिष्क में छा गया है

उसके सीने में दिशाओं ने बना लिए हैं अपने घर
और उसके अभिशप्त घर के परित्यक्त शंख से निरंतर
सागर पुकार रहा है उसे

तुम उसे अब रोक नहीं सकते

पूजाघर से निकलनेवाली अगरबत्ती की मुलायम सुगन्ध की तरह
या एक अदृश्य धागे के सहारे एक अनिश्चित पथ पर अग्रसर
शास्त्रीय संगीत के आलाप की तरह नहीं
इस धरती पर होनेवाली सबसे पहली चीख की तरह
वह
घर से
निकल रही है बाहर…

बल्कि बाहर निकल चुकी है वह

देखो-
उसकी भाषा बदल गई है
उसके कपड़े बदल गए हैं
भंगिमाएँ भी बदल गई हैं उसकी

कल जिस बात को सुनते हुए उसकी आँखें झुक जाती थीं
आज उसे कहते हुए उसकी आँखें चमक रही हैं...

यों अब भी उसके पीछे
दर्द की रेखा-सा खिंचा सन्नाटा है
और आगे है मंडराती एक बेअन्त सनसनाहट
मगर इन दोनों को झंकृत करती
सदियों से दमित उसकी दुर्निवार इच्छाएँ हैं
जो अब बौर की तरह
उसकी बाँहों से भी फूट रही हैं…

कहना चाहिए कि उफनती हुई नदी है वह
और उसकी हसरत
इतमीनान के परिदृश्य को तहस-नहस करते हुए
अपने आगोश में सब कुछ को भरते हुए
उस आबदार तिलिस्म में उमड़कर डूब जाना है-
जिसका एक और नाम है समन्दर

शनिवार, 14 मार्च 2009



तुलसी स्वीट्स

जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था कल तक
आज वह दीवार पर टँगा है

जबकि एक कोने में
पानी से भरा जग रखा है यथावत्
प्लेटों में
उसी तरह मिठाइयाँ सजी हुई हैं
सीढ़ियों के नीचे
पूर्ववत जमी है चप्पल-जूतों की धूल
और ऊपर किराएदार के गमलों में
ज्यों के त्यों लहक रहे हैं तरह-तरह के फूल…

लेकिन कल तक
जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था
आज वह
वहाँ
दीवार पर टँगा है

और दिनों की तरह ही
आज भी
इस सड़क से एक नहाई-धोई सुबह गुज़रेगी

आज भी पसीने से लथपथ एक दोपहर
अपना ठेला सड़क किनारे छोड़कर
किसी ट्रक या पेड़ की छाया में सुस्ताने बैठ जाएगा

आज फिर एक अपराह्न
किसी छोटी-मोटी गाड़ी पर
किसी प्रतिमा को स्थापित कर
प्रसाद लुटाते…
रंग-गुलाल उड़ाते प्रेमतला की और निकल जाएगा

आज फिर ताँत की साड़ी में लकदक एक शाम
नाक को रूमाल से ढँके
गली को पार करती हुई मुख्य सड़क पर आएगी
और किसी घरेलू कथा में व्यस्त
बराक मार्केट की और चली जाएगी...

आज फिर
धीरे-धीरे रिक्शे लौट जाएँगे अपने-अपने ठिकाने पर
एक-एक कर दुकनों के होंगे बंद शटर
फिर समूचा शहर
टीवी धारावाहिक और माछेर झोल में डूब जाएगा
और यह कोई नहीं जान पाएगा
कि कल तक
जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था- वहाँ
आज वह अपनी निरीह मुस्कुराहट में कैद
दीवार पर टँगा है

मुझे पता है
कुछ दिनों तक उसकी चप्पलें खोजेंगी उसे
कुछ समय के लिए उसका मौन भी हकलाएगा
कुछ अरसे तक उसकी प्यास तड़पेगी
कुछ रातों तक उसका तकिया भी कछमछाएगा

लेकिन एक दिन
उस माला की खुशबू भी
चुपके से छोड़कर चली जाएगी उसे
एक दिन उसका सामान बरामदे पे आ जाएगा
एक दिन उसका कमरा भी लग जाएगा किराए पर
एक दिन वह स्मृति से भी निकल जाएगा

उसी का समाहार

अगर शहर में होता
तो शायद उधर ध्यान भी नहीं जाता
मगर यह
शहर के कहर से दूर विश्वविद्यालय का परिसर था
जहाँ चाय-बागान से छलकती आती अबाध हरियाली
समूचे परिदृश्य को
स्निग्ध स्पर्श में बदल रही थी
और वहीं पर यह अभूतपूर्व घटना
चुपके से
आकार ले रही थी…

दरअसल हुआ यह था
कि क्वार्टर की ओर जानेवाली खुली सड़क के किनारे
एक वृक्ष था
जिसके नीचे एक आदमी खड़ा था

पहली नज़र में
विह्वल करनेवाला ही दृश्य था यह
क्योंकि आदमी के हाथ में कुल्हाड़ी नहीं थी
इसलिए उसे देखने से लगता था
कि सुबह का भूला शाम को लौट आया है…

कि तभी
उसके पौरुष से
एक धार सहसा उछली
और उसके साथ-साथ रिंग-टोन बजने लगा

यह एक नए क़िस्म का यथार्थ था
जिसके सामने मैं खड़ा था
निहत्था

अलबत्ता घटना एक ही थी
पर सत्य थे कई

पहला सत्य कहता था
कि आदमी का उमड़कर बाहर आ रहा है कुछ
इसलिए बज रहा है

दूसरा सत्य कहता था कि वह बज रहा है
इसलिए उससे फूट रही है
जलधारा

तीसरा सत्य कहता था
कि वह सींच रहा है वृक्ष को

और चौथे सत्य को कहना था
कि यहाँ कर्ता नहीं है कोई बस कुछ हो रहा है…

और जो कुछ हो रहा था
यह ॠचा है उसी का समाहार-

सोने की छुच्छी रूपा की धार।
धरती माता, नमस्कार॥

रविवार, 8 मार्च 2009



महानगर में चाँद

महानगर में चाँद को देखकर
मुझे चाँद पर रोना आता है
और चाँद को रोना आता है इस हाल में मुझे पाकर

लगता है
पिछले जनम की बात है यह
जब कातिक की साँझ या बैसाख की रात में
चाँद और मैं
आँगन से दालान
और दलान से आँगन
इस प्रतियोगिता में भागते थे
कि देखें कौन पहुँचता है पहले
(और मैं हर बार हार जाता था उससे
क्योंकि उम्र में मुझसे काफ़ी बड़ा था वह)

या फिर बाद के वर्षों में
जब मेरी हल्की-हल्की मूँछें निकल आईं थीं
और मेरे सीने में अक्सर दुखती हुई शाम
एक उदास आवारगी में लपेटकर मुझे
यहाँ-वहाँ चली जाती थी-
तब चाँद ही था मेरा सहचर
जिसके मुलायम कंधे पर मैं रखता था अपना सर

लेकिन कुछ ही वर्षों बाद
हम दोनो ऐसे बिछड़े
जैसे ब्याह के बाद बिछुड़ती हैं
गाँव की जुड़वाँ बहनें
और उसका समाचार तभी-तभी पाया
जब दुःख ने उसे घेरा
जब ग्रहण ने उसे खाया

…और आज
इतने युगों बाद
जब हम हैं आमने-सामने
तो कातरता से रूंधा है मेरा गला
कुछ कहते बने न कुछ सुनते बने

महानगर में
गुमशुदा की तलाश में निकले
बड़े भाई सा जर्जर चाँद
चाँद का धूसर विज्ञापन लगता है
बस की खिड़की से बार-बार बाहर झाँकता हुआ मैं
लगता हूँ एक खोए हुए आदमी का विज्ञापन
तथा धरती और आसमान से वंचित
त्रिशंकु की तरह
बीच में लटका हुआ
घर
देखो घर का कैसा विज्ञापन लगता है

वे तीन

ढेर सारे शब्द हैं उसके पास
एवं घटना
अथवा दुर्घटना को
जीवंत तथा प्रामाणिक बनाने के लिए
उसके पास उतनी ही चित्रात्मक और मुहावरेदार भाषा है
जितनी यह दुर्लभ समझ
कि सिर्फ़ वह जानता है कि हकीक़त क्या है

दूसरे के पास
खून में लिथड़ा हुआ चेहरा
और एक अटूट थरथराहट के सिवा
कहने के लिए कुछ भी शेष नहीं है
या तो जान बचाने में कट गई है उसकी जीभ
या वह बताने के काबिल ही न रहे
इसलिए काट ली गई है

जिसने सबसे निकट से जाना इस बर्बरता को
उसे ज्यों का त्यों बताने के लिए
अब हमारे बीच नहीं है

अन्तर्विरोध

अपने इस छोटे से जीवन में
इतने प्रतिभाशाली इतने योग्य इतने सच्चे लोगों को
सड़क पर धूल फाँकते
और दर-ब-दर भटकते देखा है

और दूसरी तरफ
इतने लिजलिजे इतने धूर्त ऐसे फिसड्डियों को
सफलता के मंच पर मटकते देखा है
कि लगता है
हमारे समय में विफलता ही
योग्यता की सबसे बड़ी कसौटी है

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009



तुम्हारा नाम

चाँद से मैंने गज भर सूत लिया
सूरज से आग्रह किया
कि वह किरण की एक सूई मुझे दे
समुद्र से कुछ मोती उधार लिए मैंने
समय से निवेदन किया कि वह थिर हो जाए
एक पल के लिए…

पृथ्वी की तमाम मजबूरियों को बुहारकर रख दिया
एक तरफ मैंने

एक दिन
इस ज़िन्दगी की स्याह चादर पर
कुछ इस तरह पिरोया तुम्हारा नाम

नहीं तो ऐसा करो

विवशता की अलगनी पर फैला हुआ हूँ
कपड़े की तरह समेट कर रख लो
अपने संसर्ग में

धागे से छिटके मूँगे की तरह
मैं बिखरा हुआ हूँ
यहाँ
वहाँ
आओ, बटोर लो मुझे

चुल्लूभर पानी और मुट्ठीभर धूल का बना
नाज़ुक खिलौना हूँ मैं
अपने एकांत में मुझे कर लो शरीक

यह पत्तियों के झड़ने का मौसम है
सन्नाटे की गूँज में जंगल डूब रहा है
डूब रहा पंखों का आलोक
उदासी का छाता बेरोक तन रहा है
एक सनसनाहट दौड़ रही है
चारो ओर
कोई अदृश्य धुनकिया मुझे लगातार धुन रहा है...

तुम्हें याद है वह दिन
जब क्षितिज का शामियाना टप्-टप् चू रहा था-
तुमसे अलग होते हुए मैं भर गया था आकंठ
और डर रहा था
तब तुमने डबडबाते हुए कहा था-
“सुनो,मेरी देह और मेरी आत्मा में छुप जाओ !”

उस दिन
मैं तुमसे कुछ न कह पाया था
लेकिन इतना जान गया था
कि एक दिन
एक पल के लिए जब
पृथ्वी की तमाम नदियाँ चुपके से मिली होंगी
तब हुआ होगा तुम्हारा जन्म

तुम्हारे संसर्ग में एक जादू है…

जादूगरनी
यह लो एक तुलसी-दल
इसे मंत्रसिक्त कर मेरे कान में रख दो
सुग्गा बनकर अब मैं
किसी वसंत में उड़ जाना चाहता हूँ …

नहीं तो किसी फूल का नाम लेता हूँ
झट से मुझे तितली बना दो
और अपने ख़ाब में कर लो जज़्ब

नहीं तो ऐसा करो
मुझे पीसकर हवा में उड़ा डालो
और फिर अपने गर्भ में धारण कर लो
अगली बार मैं तुम्हारी देह से जन्म लेना चाहता हूँ

तुम्हें मुक्त करता हूँ

मैं पत्थर छूता हूँ
तो मुझे उन लोगों के ज़ख्म दिखते हैं
जिनकी तड़प में वे पत्थर बने

मैं छूता हूँ माटी
तो मुझे पृथ्वी की त्वचा से लिपटी
विलीन फूलों की महक आती है

मैं पेड़ छूता हूँ
तो मुझे क्षितिज में दौड़ने को बेकल
नदियों के पदचाप सुनाई पड़ते हैं

और आसमान को देखते ही
वह सनसनाता तीर मुझे चीरता हुआ निकल जाता है
जो तुम्हारे पीठ से जन्मा है

मेरे आसपास सन्नाटे को बजने दो
और चली जाओ
यदि मिली
तो अपनी इसी दुनिया में मिलेगी मुझे मुक्ति
तुमसे अब कुछ भी कहने का
कोई मतलब नहीं है
सिवा इसके
कि मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ …

मेरी त्वचा और आँखों से
अपने तन के पराग बुहार ले जाओ

खंगाल ले जाओ
मुझमें जहाँ भी बची है तुम्हारे नाम की आहट

युगों की बुनी प्यास की चादर
मुझसे उतार ले जाओ

एक सार्थक जीवन के लिए
इतना दुःख कुछ कम नहीं हैं…


रविवार, 22 फ़रवरी 2009


पुकार

यदि ठीक से पुकारो
तो चीज़ें फिर आ सकती हैं तुम्हारे पास

यह जो अवकाश
तुम्हारे विगत और वर्तमान के बीच
एक मरुथल सा फैला हुआ है
( तुम्हारे विस्मरण से
तुम्हारा आत्म जो इस तरह मैला हुआ है )
वह कुछ और नहीं
शब्द और अर्थ के बीच की दूरी है केवल
विकलता के सबसे गहन क्षण में जिसे
एक आरक्त पुकार से किया जा सकता है तय

शर्त सिर्फ़ यह है
कि उसे
आकांक्षा की अंतिम छोर पर जाकर पुकारा जाय

एक दिन
जब मैं अपनी भाषा के बन में
खोए हुए एक शब्द के लिए भटक रहा था
यहाँ से
वहाँ
और सोच नहीं पा रहा था कि जाऊँ कहाँ
कि अचानक
असंख्य रन्ध्रों से मुझे फोड़ती हुई
ज्वार की तरह एक पुकार निकली-
जीतपुर!
और मैंने पाया कि अर्थ से डबडबाया हुआ
पके जामुन की तरह भीगा हुआ एक शब्द
अपने डैने फैलाए हुए
मेरी जीभ पर उतर आया है…

ऐसा ही एक और वाकया है
जब शहर से मैं
छोड़े गए तीर सा लौट रहा था अपने घर
और भरी हुई स्मृतियों के साथ
सूखी नदी पार कर रहा था
तब अपनी आँखें बन्द करते हुए मैंने
मन ही मन ज़ोर से पुकारा बिछुड़े हुए दोस्तों के नाम
कि रेत में खोए हुए जिए हुए किस्से तमाम
नाव की चोट बनकर
मेरे घुटनों में कचकने लगे
और मैंने देखा-
धूल उड़ाते शोर मचाते
चालीस बरस पुराने बच्चों को अपने साथ
दौड़कर अपनी ही तरफ आते हुए…

अपने अनुभव से जानता हूँ मैं
कि जिस तरह लोग
दरवाजे पर होनेवाले दस्तक को ही नहीं
ख़ुद अपनी आवाज को भी अनसुना कर देते हैं
चीज़ें उस तरह सुनना बन्द नहीं करतीं
बल्कि वे
हमारी विस्मृति की ओट में बैठी हुईं
हर सच्ची पुकार के लिए उत्कंठित रहती हैं

उनकी अपेक्षा हमसे अगर कुछ है
तो वह यह
कि जब भी पुकारा जाय उन्हें
सही समय पर सही नाम से पुकारा जाय

एक अदृश्य हाथ से भयभीत
रात भर दड़बे में छटपटाता हुआ मुर्गा
जब ओस से भीगी हुई धरती को पुकारता है
तो अगले दिन के शोरबे और स्वाद को निरस्त करता हुआ
एक विस्फोट की तरह प्रकट होता है सूर्य

जब कुत्ते की जीभ से
टप्-टप् चू रहा होता है दोपहर का बुख़ार
तब फटे होंठ सूखे कंठ और सूनी आँखों की पुकार पर
वृक्षों को हहराती पत्तों की कलीन बिछाती धूल की पतंग उड़ाती हुई
एक जादूगरनी की तरह प्रकट होती है हवा

जब दुःख में आकंठ डूबा रहता है तन-मन
जब ख़ुद जीना बन जाता
मृत्यु का तर्पण
तब एक धधकती पुकार ही फिर से संभव करती है वह क्षण
जब जीने का मकसद
मरने के कारण में मिल जाता है

यद्यपि मुझे पता है
कि अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए
फिलहाल कुछ भी नहीं है मेरे पास
लेकिन मेरे अन्तःकरण के जल में झिलमिलाता है
एक छोटा सा विश्वास
कि जिन्हें हम कहते हैं चीज़ें
और जिसके प्रभामय स्पर्श के लिए मर-मर कर जीते हैं
पुकार हैं वे-
उत्कटता के सघनतम क्षणों में
हमारे रक्त से पैदा हुए असाध्य अर्थों की पुकार

और जिसे हम ईश्वर के नाम से पुकारते हैं बार-बार
वस्तुतः इन्हीं पुकारों का एक विराट समुच्चय है वह
जिसके सुमिरन के लिए लिखी जाती हैं कविताएँ
जिसके आवाहन के लिए किया जाता है प्रेम
और जिसे पाने के लिए प्राण दिए जाते हैं

फ़र्क पड़ता है

सिर्फ़ बस्ती के उजड़ने से नहीं
सिर्फ़ आदमी के मरने से नहीं
सिर्फ़ गाछ के उखड़ने से नहीं
एक पत्ती के झड़ने से भी फ़र्क पड़ता है

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

सारंगी

उस आदमी ने किया होगा इसका आविष्कार
जो शायद जन्म से ही बधिर हो
और जो अपनी आवाज़ खोजने
बरसों जंगल-जंगल भटकता रहा हो

या उस आदमी ने
जिसने राजाज्ञा का उल्लंघन करने के बदले
कटा दी हो अपनी जीभ
और जिसकी देह मरोड़ती हुई पीड़ा की ऐंठन
मुँह तक आकर निराकार ही निकल जाती हो

अथवा उसने रचा होगा इसे
जो समुद्र के ज्वार से तिरस्कृत घोंघे की तरह
अकिंचनता के द्वीप पर फेंक दिया गया हो
और जिसकी हर साँस पर काँपकर टूट जाती हो
उसके उफनते हृदय की पुकार

या संभव है
जिसने खो दिया हो अपना घर-परिवार
साथ-साथ रोने के लिए किया हो इसका आविष्कार

इस असाध्य जीवन में
टूटने और छूटने के इतने प्रसंग हैं भरे हुए
कि इसके जन्म का कारण कुछ भी हो सकता है…
एक पक्षी के मरने से लेकर एक बस्ती के उजड़ने तक

इसलिए
जीवन के नाम पर जिन लोगों ने सिर्फ दुःख झेला है
उनकी मनुष्यता के सम्मान में

अपनी कमर सीधी करके सुनिये इसे
यह सुख के आरोह से अभिसिंचित कोई वाद्य यंत्र नहीं
सदियों से जमता हुआ दुःख का एक ग्लेशियर है
जो अपने ही उत्ताप से अब धीरे-धीरे पिघल रहा है

मिट्टी का बर्तन

मैं नहीं कहूँगा कि फिर लौटकर आउँगा
क्योंकि मैं कहीं नहीं जाउँगा

कोहरे के उस पार
शायद ही भाषा का कोई जीवन हो
इसलिए मेरे उच्चरित शब्द
यहीं
कार्तिक की भोर में
धान के पत्तों से टपकेंगे ठोप-ठोप

मेरी कामनाएँ
मेरे विगत अश्रु और पसीने के साथ
दुःख की इन्हीं घाटियों से उठेंगी ऊपर
और जहाँ मैंने जन्म लिया
उसके विदग्ध आकाश में फैल जाएंगी
बादल बनकर

मेरी आत्मा और अस्थियों में रचे-बसे दृश्य
इस गर्द-गुबार इस खेत-खलिहान
इस घर-द्वार में
अपना मर्म खोजने बार-बार आएंगे
इनके बाहर कहाँ पाएंगे वे अर्थ
भला कहाँ जाएंगे

जाना यदि संभव भी हुआ
तो शब्द और दृश्य और कामना के बिना
क्या और कितना बच पाउंगा
कि उसे कहा जा सकेगा जाना


आया हूँ तो यहीं रहूँगा –

आषाढ़ की इस बारिश में
धरती के उच्छवास से उठनेवाली अविरल गंध में

खपरैल के इस अँधेरे घर में
रोज़ दुपहर को लग जानेवाले
सूर्य के किरण-स्तंभ में

चनके हुए इस दर्पण पर
बार-बार आकर
चुपचाप सो जानेवाली धूल के एक-एक कण में

आया हूँ तो यहीं रहूँगा
मैं कहीं नहीं जाउँगा

जहाज का पंछी

जैसे जहाज का पंछी
अनंत से हारकर
फिर लौट आता है जहाज पर
इस जीवन के विषन्न पठार पर भटकता हुआ मैं
फिर तुम्हारे पास लौट आया हूँ

स्मृतियाँ भाग रही हैं पीछे की तरफ़
समय दौड़ रहा आगे धप्-धप्
और बीच में प्रकंपित मैं
अपने छ्लछ्ल हृदय और अश्रुसिक्त चेहरे के साथ
तुम्हारी गोद में ऐसे झुका हूँ
जैसे बहते हुए पानी में पेड़ों के प्रतिबिम्ब थरथराते हैं…

नहीं
दुःख कतई नहीं है यह
और कहना मुश्किल है कि यही सुख है
इन दोनों से परे
पारे की तरह गाढ़ा और चमकदार
यह कोई और ही क्षण है
जिससे गुजरते हुए मैं अनजाने ही अमर हो रहा हूँ…

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

नदी-घाटी-सभ्यता


जब भी नदी में उतरता हूँ
इस दुनिया की
सबसे प्राचीन सड़क पर चलने की उत्तेजना से भर जाता हूँ


मेरी स्मृति में
धीरे-धीरे उभरने लगता है
अपने अभेद्य रहस्य में डूबा हुआ जंगल


धीमे-धीमे…
मुझे घेरने लगती है
किसी अदृश्य सरिसृप के रेंगने की सरसराहट


मुझे याद आते हैं
झुंड में पानी पीते हुए पशुओं के
थरथराते प्रतिबिम्ब
और उनके पीछे
गीली मिट्टी पर बाघ के पंजों के निशान


मुझे सुनाई पड़ती है
कोहरे में विलीन डोंगियों की छपछपाहट
और तट पर दिखाई पड़ती है
छाल और खाल में लिपटे हुए लोगों की चहल-पहल
उठा-पटक


मुझे नदियों के प्रवाहित इतिहास में मिलती है
गुफाओं के चित्रलिखित स्वप्न से फूटकर
बाहर भागती आती हुई
इस जीवन की आदि नदी-कथा

और इसके गर्भ से डूबी हुईं अस्थियाँ कह्ती हैं
बीते समय की अखंडित व्यथा


मिट्टी और पानी से जन्म लेते हुए
मुझे दिखते हैं शब्द
घास की तरह लहलहाती हुई दिखती है भाषा
और अपनी प्रत्येक परिभाषा को तोड़कर
अन्ततः बाहर आता हुआ दिखता है मनुष्य


लेकिन आश्चर्य है
कि एक दिन यही मनुष्य
अपने रक्त से नदियों को निर्वासित कर देता है
और इस जीवन के आदिस्रोत से विछिन्न
अपना-अपना ईश्वर गढ़ लेता है


ठीक यहीं से आरंभ होता है
विस्मरण
का
इतिहास
यहीं आकर एक सभ्यता दम तोड़ देती है
यहीं से शुरू होते हैं आत्मघाती हमले
यहीं आकर नदियाँ
अपनी धारा मोड़ लेती हैं



यहाँ से जल-कथाएँ अपने उदगम में लौट जाती हैं।अनाथ जल-
पक्षी चले जाते हैं परदेस।वनस्पति की अनेक प्रजातियाँ ख़त्म
हो जाती हैं। सूखने लगते हैं पेड़। लोकगीत के हरित-प्रदेश में
धूल उड़ने लगती है। भूसे की तरह झड़ने लगते हैं शब्द और
मर जाता है भाषा का कवित्व।अब भग्न हृदय पानी के लिए
छटपटाने लगता है।पूज़ाघरों में लग जाता है नारियल का ढ़ेर
।मंत्र बन जाते हैं शोर। बीमार लोगों की बाँह पर ताबीज बँध
जाती है।मुक्ति के विभिन्न मॉडलों से भर जाता है बाज़ार और
हरेक चौराहे पर ईश्वर बिकने लगता है।





लेकिन
जो एक दहकते हुए प्रश्न को अपने सीने में भरकर
उस सत्ता को लाँघकर
बहुत पहले ही निकल चुके बाहर
कहाँ मिलेगा अब
उनके तपते शरीर को शीतल स्पर्श
कहाँ मिलेगा उनके व्याकुल हृदय को अब
एकमात्र आश्रय


ख़ैर
चाहे नदी-घाटी-सभ्यता की प्रेरणा नहीं
उस तरल आश्चर्य की स्मृति ही सही
मगर वह है मेरे भीतर पूरी तरह से जीवित


मैं उसकी हरेक बूँद के सामने अपना मस्तक झुकाता हूँ।