रविवार, 17 मई 2009
पर्यटन
इतनी तेज रफ्तार से चल रही यह दुनिया
इतनी जल्दी-जल्दी
अपने रंग बदल रही यह दुनिया
कि सुबह जगने के बाद
पिछली रात का सोना भी
लगता है समय की पटरी से उतर जाना
रोज दिनारम्भ से पहले
न किसी से कुछ कहना न किसी की सुनना
एक कप चाय के सहारे
घंटा आधा घंटा मेरा चुप रहना
बेतहाशा भागती हुई इस दुनिया के साथ
एक काम चलाउ रिश्ता बनाने के प्रयास हैं मात्र
यों मैं जानता हूँ
कि मेरी गाड़ी छूट चुकी है पिछली रात को ही
मुझे पता है कि मेरे लिए कोई आरक्षित सीट नहीं
पर आदतन यों ही
रोज सुबह के स्टेशन पर खड़ा होकर
मैं करता हूँ उसकी प्रतीक्षा
रोज-रोज की यह प्रतीक्षा
मेरे घर से शहर की ओर जानेवाली एक बैलगाड़ी का नाम है
जिस पर मैं अपने बाल-बच्चे कपड़ा-बस्तर बर्तन-बासन
लस्तम-पस्तम के साथ सवार होकर
जीवन के पर्यटन पर निकला हूँ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बहुत ही सुन्दर रचना. बधाई. आभार भी.
जवाब देंहटाएंकवि तुम हमारे बदल जाने का दस्तावेज़ क्यों तैयार करते हो
जवाब देंहटाएंकिस दुनिया को बताने के लिए हर सुबह इंतज़ार करते हो
सबको भागना है अपने आप से हर दिन तुम क्यों पकड़ते हो
तुम्हारी कविताओं से छूट कर क्यों नहीं जी भर मरने देते हो
कवि
जवाब देंहटाएंबदल जाने दो न हम सबको
क्या करेंगे पाषाण की तरह
हर युग में एक जैसा होकर
हर देश में एक जैसे रह कर
वक्त के बहाने ही सही कवि
बदलकर जाने दो न हर दिन
किसी सुबह के इंतज़ार से पहले
यों मैं जानता हूँ
जवाब देंहटाएंकि मेरी गाड़ी छूट चुकी है पिछली रात को ही
मुझे पता है कि मेरे लिए कोई आरक्षित सीट नहीं
पर आदतन यों ही
रोज सुबह के स्टेशन पर खड़ा होकर
मैं करता हूँ उसकी प्रतीक्षा
इस रेल के प्लेटफ़ार्म पर व्यर्थ प्रतीक्षा का मिथक ही जीवन का एक बहुत बड़ा सच है..न जाने ऐसी कितनी ट्रेनों की व्यग्र प्रतीक्षा मे दग्ध रहता है हमारा मन जिसमे हमारे लिये कोई स्थान नही होता..हमें खुद पता होता है..मगर एक प्रत्याशित पिटे हुए जीवन मे किसी अप्रत्याशित आगत की कल्पना का बरबस सुख..आह!!
किधर हैं आजकल?