रविवार, 25 जुलाई 2010

इसका क्या मतलब है



ड्योढी के टाट पर
खीरे के पात की हरी छाँह के नीचे
मेरी बाट जोह रही होगी मेरी लालसा….

रात की शाखों से उतरकर रोज़
गिलहरी की तरह फुदकती हुई
मुझे खोज रही होगी मेरी नींद…

मेरे स्वप्न
मेरी अनुपस्थिति पर सर रखकर सो रहे होंगे
और मेरे हिस्से का आसमान
अनछुए ही धूसर हो रहा होगा…

इसका क्या मतलब है
कि जहाँ लौट पाना अब लगभग असंभव है
वहीं सबसे सुरक्षित है मेरा वजूद ?


समय को चीरकर (कविता संग्रह;1998) से,
प्रकाशक:आधार प्रकाशन प्रा लिमिटे़ड,पंचकूला(हरियाणा)

12 टिप्‍पणियां:

  1. कविताओं का बड़ा सुन्दर प्रस्तुतिकरण आपने किया है. सुरुचिपूर्ण. बधाई.

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  2. गज़ब का भाव संप्रेषण्।
    कल (26/7/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  3. सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आप सब का आभारी हूँ।

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  4. Part 1
    उसके सीने में दिशाओं ने बना लिए हैं अपने घर
    और उसके अभिशप्त घर के परित्यक्त शंख से निरंतर
    सागर पुकार रहा है उसे
    तुम उसे अब रोक नहीं सकते

    महिलाओं के ऊपर कितने और कैसे अत्याचार होते आये हैं इसका 'भूतकाल', 'वर्तमान' से अलग नहीं है. बस थोडा ग्लेज़्ड , थोडा ग्लेमराइज़्ड हो गया है.
    'भविष्य'.....
    यों अब भी उसके पीछे
    दर्द की रेखा-सा खिंचा सन्नाटा है
    और आगे है मंडराती एक बेअन्त सनसनाहट

    शहर की लड़कियों को देखा है मैंने. नज़दीक से... सच में आज़ादी पाने के लिए कितना कुछ खोया है उन्होंने. नहीं नहीं.... मैं मानसिक स्तर पे कुछ खोने की कुछ छूट जाने की बात कर रहा हूँ. क्या अमीर ने गरीब के लिए क्रांति की है? शोषण ने शोषित की? नहीं !! तो महिला आरक्षण बिल भी तभी पास हो सकता है जब 33 प्रतिशित महिलाएं संसद में आ जाये. हाँ सांसदों की salary बढ़ने के ऊपर आम सहमति एक अलग बात है.

    (जैसे खुद को साबित करना
    प्रतिशोध का एक नया तरीका हो)

    इसे कोष्ठक में देने से इसका अर्थ और ज्यादा मुखरित हो जाता है. और विरोधाभासी भी. मेरा किसी भी सफल लेखक और कलाकार से यही पहला और आखरी प्रश्न होगा की तुमने इतनी मुश्किल ज़िन्दगी कैसे जी ली? और वो सच में मेरे प्रश्न का अर्थ समझ जायेगा.
    ...TBC

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  5. Part 2
    अपनी कमर सीधी करके सुनिये इसे
    यह सुख के आरोह से अभिसिंचित कोई वाद्य यंत्र नहीं
    सदियों से जमता हुआ दुःख का एक ग्लेशियर है
    जो अपने ही उत्ताप से अब धीरे-धीरे पिघल रहा है

    अगर आपकी ऊपर की तीन कविताओं को एक साथ देखूं तो कह सकता हूँ... हर सफल पुरुष के पीछे एक पोटेनशियल लेकिन असफल स्त्री का हाथ होता है. और हर सफल स्त्री के पीछे (ठीक किसी सफल कवि कि तरह) उसकी खुद की न दिख सकने वाली छुपी असंख्य असफलताओं का.
    और हर इश्वर के पीछे पुकारों का एक विराट समुच्चय .

    एक अदृश्य हाथ से भयभीत
    रात भर दड़बे में छटपटाता हुआ मुर्गा
    जब ओस से भीगी हुई धरती को पुकारता है
    तो अगले दिन के शोरबे और स्वाद को निरस्त करता हुआ
    एक विस्फोट की तरह प्रकट होता है सूर्य

    जब कुत्ते की जीभ से
    टप्-टप् चू रहा होता है दोपहर का बुख़ार
    तब फटे होंठ सूखे कंठ और सूनी आँखों की पुकार पर
    वृक्षों को हहराती पत्तों की कलीन बिछाती धूल की पतंग उड़ाती हुई
    एक जादूगरनी की तरह प्रकट होती है हवा
    और जिसे पाने के लिए प्राण दिए जाते हैं.


    मुर्गे की ज़ाया अंतिम बाग से जाया अनंतिम सूरज और उस कुत्ते के की लार के किसी अंश से पैदा हुआ हवाओं का सिलसला वाकई में सिद्ध करता है इश्वर का अस्तित्व. वैसे अच्छा है कि कुत्ते के केवल जीभ में ही पसीने कि ग्रंथिका होती है नहीं तो तूफ़ान आना था. दैविक-तूफ़ान.
    क्या आप बता सकते हैं
    कि पिछली बार कब
    खुद को छोटा बनाये बगैर आपने
    दूसरे को बड़ा बनाया था ?

    रिंग मैं मोहम्मद अली को देखा था, एक बच्चे के साथ बोक्सिंग कर रहा था और उसके बाद हारने का नाटक, रिंग के बहार निकलकर बोला "मुझे हारने मैं इतना आनंद आया जितना अपने पूरे जीवन काल मैं जीतने मैं नहीं आया."
    हम इतने परिष्कृत हो चुके है, इतने इवेलयुट हो चुके हैं कि बस नष्ट हुआ चाहते हैं. आखिरकार जो जमीन से जितना गहरा जुड़ेगा वो उतना ऊपर उठेगा. देर तक रहेगा भी. बाकी आपकी मर्ज़ी.

    प्रेम में आदमी बोलता है निःशब्द
    तो धरती समझती है
    उसका अर्थ

    ये कविता सामान्य लगी. दोष आपका नहीं है.छायावादियों और उसके बाद bollywood, ग़ज़ल और गीतों ने 'इस स्पेसिफिक' क्षेत्र में कम ही स्कोप रखा है, तभी तो जो इस तरह के प्रेम को नहीं जानता या नहीं चाहता वो तिरस्कृत है अगर आपके ही शब्दों में कहें....
    वासना की एक विराट गंगा बहती है इस धरती पर
    जिसकी शीतलता से तिरस्कृत वे
    अपने रेत में खड़े-खड़े
    सूखे ताड़-वृक्ष की तरह अनवरत झरझराते रहते हैं



    और अब उन्हें
    अर्जुन की तरह दिख रही
    सिर्फ़ चिड़िया की आँख

    कमाल का बिम्ब है.
    गडरिये वाली कविता में 'हयात के सामने रिंग रोड' वाला बिम्ब उसको एक सरसरी पैदा करने की हद तक एबस्त्रक्ट बनता है. वो गडरिया जो....
    एक अभिशप्त देवदूत की तरह सड़क पर भटकता रहता है.
    मनो... न होकर भी है.या... या... होना तो चाहिए था कम से कम...
    ठीक उस मिठाई वाले के न होने की तरह... वैसे मिठाई वाले के न होने के प्रति...
    "किस किस को याद कीजिये, किस किस को रोइये?"
    उसी का समाहार से एक विज्ञापन की सहसा याद हो आई "सर जी आप कौन से पेड़ हो? प्री-पेड़ हो की पोस्ट-पेड़ हो?" ;) (झूठ नहीं कहूँगा, इस कविता का मर्म शायद नहीं समझ पाया)

    जैसा आपके महानगर में चाँद को देखकर होता है वैसा महानगर के पेड़ देख कर होता है, उनकी पत्तियां देखकर, महानगर के कुत्ते देखकर. (अन्यथा न लें, खैर आप समझ गए होंगे.) उनके भूरेपन में (महानगर के चौराहों में उगे पेड़ों के और कुत्तों के बालों में) एक अजीब सी उदासीनता है. आत्महत्या से पहली की सी. आपका चांद अब महानगर का हर शख्स अपने चेहरे पे लेकर घूमता है. काश उन्हें भी अपने पूर्वजन्मों की याद होती.
    अंततः रचनाशीलता के नए आयाम दिखाने के लिए धन्यवाद.


    ...TBC

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  6. वजूद ......

    इस सुन्‍दर कविता के लिए धन्‍यवाद.

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  7. अद्भुत है कृष्णमोहन जी..कुछ समय के व्यतिक्रम के बाद इधर आना हुआ..और डूबना पड़ा..बाहर आना इतना आसान नही हो पाता हर बार..शायद हमारे वजूद का सबसे संवेदनशील अंश हमारी अपनी पहुँच से बाहर होता है..तभी इतना निरापद और सुरक्षित भी..यह चिर-अतृप्ति का सुख है..अनागत की प्रतीक्षा..कि हमारे स्वप्न, लालसायें और हमारा आकाश वहीं पर हमारी प्रतीक्षा करता है..जहाँ वापस जा पाना सिर्फ़ स्मृतियों मे संभव होता है..इन्ही अधूरी चीजों से मिल कर बना होता है हमारा वजूद...
    बस इतनी सी शिकायत..कि थोड़ा जल्दी-जल्दी आया कीजिये...

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  8. अपूर्व जी,मैं भी काफी दिनों बाद आज नेट पर आया हूँ।इतनी अच्छी टिप्पणी करने के लिए शुक्रिया!मैं तो कहूँगा कि आपकी टिप्पणी मेरी कविता से अच्छी है।हिन्दी की अधिकांश गद्य कविताएं ऐसी नहीं होतीं।अपनी कविताओं को बाहर क्यों नहीं लाते?

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