रविवार, 12 अप्रैल 2009

देह तो आख़िर


देह तो आखिर देह ही है

कौन नहीं जानता
पुरुष के शरीर की बनावट
कौन स्त्री-देह की संरचना से है अनभिज्ञ

लेकिन आजकल जितनी दूर तक नजर जाती है
एक प्रचंड आक्रमण की तरह
देह ही देह नजर आती है

कोई लय नहीं
कोई कोमलता नहीं
ह्रदय के सबसे प्राचीन तट पर
किसी पद-चिह्न को सँजो रखने की विकलता नहीं

देह से परे
किसी अज्ञात आलोक के स्पर्श के लिए
कोई सपना नहीं
ओस में भींगे फूल की तरह
प्रेम से भारी होकर
घास के आगे झुक जाने की कामना नहीं

रेस्त्राँ से लेकर
रूम तक जाने में जितना समय लगता है
अगर कह सकते हैं
तो उतना ही बचा है हमारे युग में
रोमांस

3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कविताएं-बधाई! मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है…।

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  2. Manav prakashan ke daftar mein suni gayee aapki kavitayon ko phir se padhkar yaaden tarotaza ho gayeen. vo sham kuchh suhani thi par yah raat kam nashilee nahin hai. Agar mein Keats ke shabdon mein kahoon to sundarta aapki kavita ki, anoothapan aap ki kavitayon kaa, aapke andaz aadi are the joy for ever.

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