सोमवार, 28 मार्च 2011
नदी मतलब शोक-गीत
(प्रो 0 हेतुकर झा के लिए )
आखिर किस चीज से बनती है नदी?
वह पृथ्वी की आग से बनती है
या किसी नक्षत्र की मनोकामना से?
वह पैदा होती है ॠषियों के श्राप से अथवा मनुष्य के सपने से?
वह प्रार्थना से अंकुरित होती है या याचना से जन्म लेती है?
वह पीड़ा की सुपुत्री है या तृष्णा की समगोत्री ?
इस प्रसंग में मुझे नहीं है कुछ भी ज्ञात
मैं हूँ भइ एक अदना सा कवि
जीवन के बहुतों सत्य से अज्ञात…
मुझे तो सिर्फ़ इतना पता है
कि नदी का नाम लेते ही
मेरी आत्मा छटपटाने लगती है
चाँछ में फँसी एक अकेली मछली सी
सहसा मेरा ह्रदय पुरइन के पात में बदल जाता है
मेरी त्वचा चुनचुनाने लगती है
दुर्लभ हो चुके उस स्पर्श के लिए
मेरा यह थका हुआ शरीर अचानक एक डोंगी बन जाता है
मेरी रीढ़
सुदूर समुद्र के निनाद से हो जाती है उन्मत्त
मेरी धमनी में उधियाने लगता है आदिम यात्रा का जल-संगीत
और हजारों बरस पहले
मैं देखता हूँ खुद को जल-आख्यान के एक सजल पात्र के रूप में सक्रिय…
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नदी का मतलब नहीं होता
अपने लम्बे घने केसों को छितराये एक विकट जादूगरनी
नदी मतलब नहीं होता उज्जर सफेद रौशनी की एक विराट चादर
नदी मतलब नहीं होता गाछपात फूलपत्ती जंगल और पहाड़
नदी मतलब नहीं होता सृष्टि का कोई खास चमत्कार…
नदी का मतलब कतई नहीं होता
दुनिया की सबसे पहली और सबसे दुर्गम और सबसे उत्तेजक यात्रा
नदी मतलब नाव नदी मतलब प्यास नदी मतलब भोजन
नदी मतलब त्याग नदी मतलब उत्सर्ग नदी मतलब विसर्जन
नदी मतलब अविराम अविचल और अप्रतिहत जीवन नहीं होता अब…
अब नदी का मतलब होता है
नगरों-महानगरों का कचरा ढोनेवाला बहुत बड़ा नाला
अब नदी का मतलब होता है
स्याह बदबूदार लसलसाते पानी का मरियल प्रवाह
अब नदी का मतलब होता है
बुढ़ापे में तलाक मिले एक लाचार औरत की कराह…
नदी मतलब फिल्टर
नदी मतलब रंग-बिरंगे वॉटर-प्यूरिफायर और मिनरल वॉटर
नदी मतलब अरबों रुपए की सरकारी परियोजनाएँ
नदी मतलब सेमिनार नदी मतलब एन0जी0ओ0
नदी मतलब पुस्तिका नदी मतलब विमोचन
नदी मतलब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लपलपाती जिह्वा
नदी मतलब वर्ल्ड-बैंक नदी मतलब फोर्ड फाउण्डेशन…
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नदी बदलती रहती है अपना रूप
नदी बदलती रहती है अपना रंग
अपना नाम भी बदलती रहती है नदी…
ऊर्ध्वमुखी होकर जब
प्रवाहित होती है अंतरिक्ष की ओर
तब वह रूपांतरित हो जाती है सहस्रबाहु असंख्य गाछ में
और हरियर-कचोर जंगल बन जाता है एक अभूतपूर्व समुद्र
नदी कभी रौशनी का इतना बड़ा बीज बन जाती है
और आसमान के अनादि-अनंत नीलवर्णी जोते हुए खेत में
पैदा होती है बनकर सूर्य
कई बार तो स्त्री बन जाती है नदी-
वह कुछ कहती नहीं है
सिर्फ़ सहती है
चुपचाप बहती है…
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जैसे अपने जीवन से आजिज
जैसे लगातार पीढ़े से मार खाई हुई
और करछी से जलाई हुई
जैसे निरंतर यातना की भट्टी में सींझती और खून-पसीने में भींजती स्त्री
आखिर एक दिन
धतूरे का दाना चबा लेती है माहुर खा लेती है
या नहीं तो बिजली की धार की तरह चमकते गड़ाँसे को लेकर
किसी की कलाई उड़ा देती है
किसी की गरदन गिरा देती है
समूचे घर को भुजिया-भुजिया बना देती है
और अन्ततः सारी चीज़ों को छोड़कर चली जाती है बहुत दूर
ठीक उसी तरह
देखो उधर वह-
आधुनिक सभ्यता से प्रताड़ित नदी
जो कभी माँ की तरह वत्सला और गाय की तरह दुग्धवती थी-
घर-दुआर को अपने विकट उदर में लेकर
दीवाल गिराकर
एक-एक घर में पानी की आग लगाकर
गली-गली में मृत्यु की खलबली मचा कर
अन्ततः तुम्हारे नगर को तजकर जा रही रही है दूर…
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जिस तरह पेड़-पौधे नहीं जाते
कटने के बाद अकेले
जिस तरह वृक्षविहीन धरती से
हकासे-पिआसे पखेरू अकेले नहीं जाते
उसी तरह नदी भी नहीं जाती सब कुछ को छोड़कर अकेले…
एक कटा हुआ वृक्ष
अपनी रक्तहीन पीड़ा में थरथराते
अनगिनत दोपहरों की छाया
तथा असंख्य पक्षियों के डीह-डाबर और गीत-नाद लेकर
आरा मशीन के ब्लैकहोल में बिला जाता है…
गाछ-पात से वंचित पंछी
सिर्फ धरती-आकाश को अपनी वेदना से सिहराए
अपने अदृश्य आँसुओं से
सिर्फ अंतरिक्ष के अर्थ को अंतरिक्ष से छुपाए नहीं होते विदा
वे अपने साथ भोर-साँझ की संगीत-सभा
और हरियाली की अलौकिक प्रभा लेकर उड़ जाते हैं…
अकेले नदी भी नहीं जाती
वह अपने साथ
लोक-गीत का विशाल भंडार
और किस्से-कहानियों का विराट संदूक दबाए
अपनी काया में जीवन का रहस्य और पूर्वजों की प्रार्थनाएँ छुपाए
अपने गर्भ में
आदिम मनुष्य के धधकते छन्द
और अलिखित इतिहास का अदृश्य दस्तावेज लिए चली जाती है…
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अब वह सभ्यता के लैपटॉप पर एक मनोरम दृश्य में बदल गई है
अब वह लिविंगरूम की दीवाल पर आकर्षक फ्रेम में बह रही है…
फिल्मी परदे पर अब वह
बनकर छा गई है आसमानी रंग का एक तरल प्रवाह
रिकॉर्डित गीत-संगीत से निरंतर अब उसकी कलकल आवाज आ रही है…
अब यह जीवन हो गया है
ज़्यादा ठोस ज़्यादा चौकोर ज़्यादा व्यवस्थित
इतना व्यवस्थित कि डर लगता है उधर देखने से…
नपा प्रेम नपी घृणा नपा वात्सल्य नपी करुणा
नपी पीड़ा नपी कामना नपा संघर्ष नपी तृष्णा
नपा सुख नपा दुख नपी उपलब्धि नपी समृद्धि
नपी कला नपा साहित्य…
नपी-तुली
दुनिया के लोग
बरबस डूबे रहते हैं--
चाय-भुजिया-सीरियल में…
कोल्डड्रिंक-सॉफ्टड्रिंक-हार्डड्रिंक में…
टीवी-फ्रिज-वॉशिंगमशीन-माइक्रोवेव-होमथियेटर में…
बर्थडे-मैरेज़डे-मदर्सडे-फादर्सडे-चिल्ड्रेन्सडे-टीचर्सडे-हेल्थडे-ड्रायडे में…
लोन-फ्लैट-प्रॉपर्टी में…इन्श्योरेंस-म्यूचुअलफंड-शेयरमार्केट में…
और समझते हैं कि दुनिया पूर्ववत चल रही है
लेकिन पूर्ववत कैसे चल सकती है दुनिया!
पूर्ववत सिर्फ़ जन्म लेते हैं लोग
और पूर्ववत मरते हैं
जन्म और मृत्यु के बीच
पसरा रहता है एक अजेय असाध्य अपरिभाषित जीवन
उसे समझने की जितनी कोशिश करो
उतना ही वह अबूझ और असह्य होता जाता है…
दूरी को कम करने के किए जाते हैं जितने प्रयत्न
लोग एक दूसरे से उतना ही दूर होते जाते हैं
दुनिया में उतनी ही बढती जाती है अजनबी लोगों की संख्या
ईमानदार लोग उतने ही अकेले और विक्षिप्त होते जाते हैं
कृत्रिम उतना ही करता जाता है मौलिक को लज्जित
अभिव्यक्ति उतनी ही दुरूह होती जाती है…
और रूखी होती जाती है भाषा
और क्षणिक होता जाता है प्रेम
और नाटकीय होते जाते हैं सम्बंध
और हिंसक होती जाती है देह
अब लोग बोलते हैं तो उनके मुँह से झड़ता है भूसा
अब लोग रोते हैं तो उनकी आँखों से धूल उड़ती है…
मैथिली से अनुवाद: स्वयं कवि
रविवार, 28 नवंबर 2010
यात्रा-वृत्तांत
आते हुए…छूटते…जाते हुए सारे दृश्य
और सभी ध्वनियाँ
परस्पर गुँथकर
किसी कोलाज की तरह खिड़की पर जम गए हैं
और डब्बे में झूलती पिछली रात के सपने में
हवा में हहराते गाछ के नीचे
उस गर्भवती के लाल-टेस बच्चे को लेकर अभी भी चल रहा हूँ मैं
जिसकी ऊँघती देह
एक नाव बनकर रेल में हिल रही है…
एक परिचित अजनबी स्त्री के खून से उछलकर
फूल की एक बूँद
मेरी आत्मा में धूप की तरह उतर रही है धीरे-धीरे
जिसकी प्रभा में झिलमिलाता मेरी यात्रा का वैभव
पहली बार
इतना अधूरा और इतना पूरा हो रहा है
कि उसे कह पाने के लिए मैं छ्टपटाता हूँ
खुद को जोतता-कोड़ता हूँ
एक-एक सिरा अलगाता हूँ
और तब अपनी नश्वरता में यह भेद पाता हूँ
कि मैं आदमी नहीं
मेरे भीतर जो एक बच्चा बैठा है
उसकी उमगती हुई गेंद हूँ मैं
एक-एक साँस उछलकर जहाँ तक जिस तरह पहुँच पाता हूँ
वही है मेरी अधिकतम भाषा
मेरी इस भाषा के आसमान में उगा है
एक तारा अभी
इस भाषा की टहनी को छूती हुई अभी एक बयार गुजरी है
इस भाषा की देह से अभी उठी है वन-तुलसी की गंध
इस भाषा के रक्त से
अभी–अभी एक नन्हे हाथ की पुकार उभरी है
जिन्हें ठीक से सहने
और यथासंभव कहने के लिए मैं
डब्बे में ऊँघ रहे लोगों को बार-बार जगाने की कोशिश करता हूँ…
लेकिन कोई हिलता तक नहीं
असंख्य गाँवों अनगिनत नदियों और अखण्ड दृश्यों को छोड़ती
फफकती गाड़ी में
सिर्फ छूटी हुई यात्राएँ हिलती हैं…
'समय को चीरकर'(आधार प्रकाशन,पंचकूला-1998) से
रविवार, 12 सितंबर 2010
नाम तो उसका ज़ाफर है
डाक्साब, नाम तो उसका जाफर है
लेकिन इतना विनम्र
और इतना तेजस्वी है लड़का
कि लगता ही नहीं कि वह जाफर है
कहीं भी देख ले
आकर सबसे पहले चरण स्पर्श करता है
और माँस-मछली के भक्षण की बात तो जाने दीजिए
कहता है कि अंडे से भी बास आती है
और सर्वाधिक आश्चर्य की बात तो ये सुनिए-
अपने प्रस्तावित शोधोपाधि के लिए जो विषय चुना है उसने
वह कबीर या रसखान या जायसी नहीं
बल्कि अपने बाबा तुलसी हैं
…जी,जी हाँ…
बिल्कुल ठीक कहा आपने
कमल तो सदैव कीचड़ में ही खिलता है……
रविवार, 25 जुलाई 2010
इसका क्या मतलब है
ड्योढी के टाट पर
खीरे के पात की हरी छाँह के नीचे
मेरी बाट जोह रही होगी मेरी लालसा….
रात की शाखों से उतरकर रोज़
गिलहरी की तरह फुदकती हुई
मुझे खोज रही होगी मेरी नींद…
मेरे स्वप्न
मेरी अनुपस्थिति पर सर रखकर सो रहे होंगे
और मेरे हिस्से का आसमान
अनछुए ही धूसर हो रहा होगा…
इसका क्या मतलब है
कि जहाँ लौट पाना अब लगभग असंभव है
वहीं सबसे सुरक्षित है मेरा वजूद ?
समय को चीरकर (कविता संग्रह;1998) से,
प्रकाशक:आधार प्रकाशन प्रा लिमिटे़ड,पंचकूला(हरियाणा)
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
समाप्ति पर
नहीं
समाप्ति पर नहीं
पार्टी तो असली रौनक पर आई है अब
जिनके पास दुख थे
वे दस्ताने पहनकर और बहाने ओढकर
अपनी-अपनी दुनिया में लौट चुके हैं
जिन्होंने गम मिटाने के लिए ग्लास उठाया था
वे तीसरे पैग पर लड़खड़ाने लगे
और पाँचवें पर आते-आते
रोते-बड़बड़ाते
अन्ततः
धराशायी हुए
लेकिन जिनकी पोर-पोर में भरा था सुख
और भीतर कहीं कोई पछतावा नहीं था
उन्होंने अपने आखेट का चयन कर लिया तुरन्त
और अब उन्हें
अर्जुन की तरह दिख रही
सिर्फ़ चिड़िया की आँख
और आँख अब है-
दहकते हुए एक चाकू का नाम
जो एक दूसरे के भीतर उतर रही है…
और होंठ
कथनी को करनी में बदल रहे जल्दी-जल्दी…
और जिह्वा ने
हाथों को अप्रासंगिक कर दिया है फौरन
और अब देह
अपनी आदिम आभा से उछलकर
पार्क में पत्थर की बेंच बन गई है
और शेष दुनिया सो रही है बदहवास…
और पेड़ की पत्तियों से
रात के आँसू गिर रहे हैं टप-टप…
और आसमान में डूब रहा है एक चाँद…
और ख़त्म हो रही है एक दुनिया…
और मर रहा है एक कवि…
और झड़ रहा है एक फूल……
रविवार, 6 दिसंबर 2009
हिजड़े
एक
कहना मुश्किल है कि वे कहाँ से आते हैं
खुद जिन्होंने उन्हें पैदा किया
ठीक से वे भी नहीं जानते उनके बारे में
ज़्यादा से ज़्यादा
पारे की तरह गाढे क्षणों की कुछ स्मृतियाँ हैं उनके पास
जिनकी लताएँ फैली हुई हैं
उनकी असंख्य रातों में
लेकिन अब
जबकि एक अप्रत्याशित विस्फोट की तरह
वे क्षण बिखरे हुए हैं उनके सामने
यह जानकर हतप्रभ और अवाक हैं वे
कि उनके प्रेम का परिणाम इतना भयानक हो सकता है
लेकिन यह कौन कह सकता है
कि सचमुच उनके वे क्षण थे
प्रणति और प्रेम के?
क्या उनके पिताओं ने
पराजय और ग्लानि के किसी खास क्षण में किया था
उनकी माँओं का संसर्ग?
क्या उनकी माँओं की ठिठुरती आत्मा ने
कपड़े की तरह अपने जिस्म को उतारकर
अपने-अपने अनचाहे मर्दों को कर दिया था सुपुर्द?
क्या उनके जन्म से भी पहले
गर्भ में ही किसी ने कर लिया उनके जीवन का आखेट?
दो
वासना की एक विराट गंगा बहती है इस धरती पर
जिसकी शीतलता से तिरस्कृत वे
अपने रेत में खड़े-खड़े
सूखे ताड़-वृक्ष की तरह अनवरत झरझराते रहते हैं
संतूर के स्वर जैसा ही
उनकी चारो ओर
अनुराग की एक अदृश्य वर्षा होती है निरंतर
जिसे पकड़ने की कोशिश में
वे और कातर और निरीह होते जाते हैं
अंतरंगता के सारे शब्द और सभी दृश्य
बार-बार उन्हें एक ही निष्कर्ष पर लाते हैं
कि जो कुछ उनकी समझ में नहीं आता
यह दुनिया शायद उसी को कहती है प्यार
लेकिन यह प्यार है क्या?
क्या वह बर्फ़ की तरह ठंडा होता है?
या होता है आग की तरह गरम?
क्या वह समंदर की तरह गहरा होता है?
या होता है आकाश की तरह अनंत?
क्या वह कोई विस्फोट है
जिसके धमाके में आदमी बेआवाज़ थरथराता है?
क्या प्यार कोई स्फोट है
जिसे कोई-कोई ही सुन पाता है?
इस तरह का हरेक प्रश्न
एक भारी पत्थर है उनकी गर्दन में बँधा हुआ
इस तरह का हरेक क्षण ऐसी भीषण दुर्घटना है
कि उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे
और यह जो गाते-बजाते ऊधम मचाते
हर चौक-चौराहे पर
वे उठा लेते हैं अपने कपड़े ऊपर
दरअसल वह उनकी अभद्रता नहीं
उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है
जिसने उन्हें बनाया है
या फिर नहीं बनाया
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
अकेले ही नहीं
मैं उन कहावतों और दंतकथाओं को नहीं मानता
कि अपनी अंतिम यात्रा में आदमी
कुछ भी नहीं ले जाता अपने साथ
बड़े जतन से जो पृथ्वी
उसे गढकर बनाती है आदमी
जो नदियाँ उसे सजल करती है
जो समय
उसकी देह पर नक्काशी करता है दिन-रात
वह कैसे जाने दे सकता है उसे
एकदम अकेला?
जब पूरी दुनिया
नींद के मेले में रहती है व्यस्त
पृथ्वी का एक कण
चुपके से हो लेता है आदमी के साथ
जब सारी नदियाँ
असीम से मिलने को आतुर रहती हैं
एक अक्षत बूँद
धारा से चुपचाप अलग हो जाती है
जब लोग समझते हैं
कि समय
कहीं और गया होगा किसी को रेतने
अदृश्य रूप से एक मूर्तिकार खड़ा रहता है
आदमी की प्रतीक्षा में।
हरेक आदमी ले जाता है अपने साथ
साँस भर ताप और जीभ भर स्वाद
ओस के गिरने की आहट जितना स्वर
दूब की एक पत्ती की हरियाली जितनी गंध
बिटिया की तुतलाहट सुनने का सुख
जीवन की कुछ खरोंचें,थोड़े दुःख
आदमी ज़रुर ले जाता है अपने साथ-साथ।
मैं भी ले जाउँगा अपने साथ
कलम की निब भर धूप
आँख भर जल
नाखून भर मिट्टी और हथेली भर आकाश
अन्यथा मेरे पास वह कौन सी चीज़ बची रहेगी
कि दूसरी दूनिया मुझे पृथ्वी की संतति कहेगी!
आधार प्रकाशन, पंचकूला द्वारा प्रकाशित
समय को चीरकर(1998)कविता संग्रह से
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