रविवार, 28 नवंबर 2010

यात्रा-वृत्तांत




आते हुए…छूटते…जाते हुए सारे दृश्य
और सभी ध्वनियाँ
परस्पर गुँथकर
किसी कोलाज की तरह खिड़की पर जम गए हैं
और डब्बे में झूलती पिछली रात के सपने में
हवा में हहराते गाछ के नीचे
उस गर्भवती के लाल-टेस बच्चे को लेकर अभी भी चल रहा हूँ मैं
जिसकी ऊँघती देह
एक नाव बनकर रेल में हिल रही है…

एक परिचित अजनबी स्त्री के खून से उछलकर
फूल की एक बूँद
मेरी आत्मा में धूप की तरह उतर रही है धीरे-धीरे
जिसकी प्रभा में झिलमिलाता मेरी यात्रा का वैभव
पहली बार
इतना अधूरा और इतना पूरा हो रहा है
कि उसे कह पाने के लिए मैं छ्टपटाता हूँ
खुद को जोतता-कोड़ता हूँ
एक-एक सिरा अलगाता हूँ
और तब अपनी नश्वरता में यह भेद पाता हूँ
कि मैं आदमी नहीं
मेरे भीतर जो एक बच्चा बैठा है
उसकी उमगती हुई गेंद हूँ मैं

एक-एक साँस उछलकर जहाँ तक जिस तरह पहुँच पाता हूँ
वही है मेरी अधिकतम भाषा

मेरी इस भाषा के आसमान में उगा है
एक तारा अभी
इस भाषा की टहनी को छूती हुई अभी एक बयार गुजरी है
इस भाषा की देह से अभी उठी है वन-तुलसी की गंध
इस भाषा के रक्त से
अभी–अभी एक नन्हे हाथ की पुकार उभरी है
जिन्हें ठीक से सहने
और यथासंभव कहने के लिए मैं
डब्बे में ऊँघ रहे लोगों को बार-बार जगाने की कोशिश करता हूँ…
लेकिन कोई हिलता तक नहीं
असंख्य गाँवों अनगिनत नदियों और अखण्ड दृश्यों को छोड़ती
फफकती गाड़ी में
सिर्फ छूटी हुई यात्राएँ हिलती हैं…



'समय को चीरकर'(आधार प्रकाशन,पंचकूला-1998) से

रविवार, 12 सितंबर 2010

नाम तो उसका ज़ाफर है



डाक्साब, नाम तो उसका जाफर है
लेकिन इतना विनम्र
और इतना तेजस्वी है लड़का
कि लगता ही नहीं कि वह जाफर है

कहीं भी देख ले
आकर सबसे पहले चरण स्पर्श करता है

और माँस-मछली के भक्षण की बात तो जाने दीजिए
कहता है कि अंडे से भी बास आती है

और सर्वाधिक आश्चर्य की बात तो ये सुनिए-
अपने प्रस्तावित शोधोपाधि के लिए जो विषय चुना है उसने
वह कबीर या रसखान या जायसी नहीं
बल्कि अपने बाबा तुलसी हैं

…जी,जी हाँ…
बिल्कुल ठीक कहा आपने
कमल तो सदैव कीचड़ में ही खिलता है……

रविवार, 25 जुलाई 2010

इसका क्या मतलब है



ड्योढी के टाट पर
खीरे के पात की हरी छाँह के नीचे
मेरी बाट जोह रही होगी मेरी लालसा….

रात की शाखों से उतरकर रोज़
गिलहरी की तरह फुदकती हुई
मुझे खोज रही होगी मेरी नींद…

मेरे स्वप्न
मेरी अनुपस्थिति पर सर रखकर सो रहे होंगे
और मेरे हिस्से का आसमान
अनछुए ही धूसर हो रहा होगा…

इसका क्या मतलब है
कि जहाँ लौट पाना अब लगभग असंभव है
वहीं सबसे सुरक्षित है मेरा वजूद ?


समय को चीरकर (कविता संग्रह;1998) से,
प्रकाशक:आधार प्रकाशन प्रा लिमिटे़ड,पंचकूला(हरियाणा)

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

समाप्ति पर



नहीं
समाप्ति पर नहीं
पार्टी तो असली रौनक पर आई है अब

जिनके पास दुख थे
वे दस्ताने पहनकर और बहाने ओढकर
अपनी-अपनी दुनिया में लौट चुके हैं

जिन्होंने गम मिटाने के लिए ग्लास उठाया था
वे तीसरे पैग पर लड़खड़ाने लगे
और पाँचवें पर आते-आते
रोते-बड़बड़ाते
अन्ततः
धराशायी हुए

लेकिन जिनकी पोर-पोर में भरा था सुख
और भीतर कहीं कोई पछतावा नहीं था
उन्होंने अपने आखेट का चयन कर लिया तुरन्त

और अब उन्हें
अर्जुन की तरह दिख रही
सिर्फ़ चिड़िया की आँख

और आँख अब है-
दहकते हुए एक चाकू का नाम
जो एक दूसरे के भीतर उतर रही है…

और होंठ
कथनी को करनी में बदल रहे जल्दी-जल्दी…

और जिह्वा ने
हाथों को अप्रासंगिक कर दिया है फौरन

और अब देह
अपनी आदिम आभा से उछलकर
पार्क में पत्थर की बेंच बन गई है

और शेष दुनिया सो रही है बदहवास…

और पेड़ की पत्तियों से
रात के आँसू गिर रहे हैं टप-टप…

और आसमान में डूब रहा है एक चाँद…
और ख़त्म हो रही है एक दुनिया…
और मर रहा है एक कवि…
और झड़ रहा है एक फूल……