शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009



तुम्हारा नाम

चाँद से मैंने गज भर सूत लिया
सूरज से आग्रह किया
कि वह किरण की एक सूई मुझे दे
समुद्र से कुछ मोती उधार लिए मैंने
समय से निवेदन किया कि वह थिर हो जाए
एक पल के लिए…

पृथ्वी की तमाम मजबूरियों को बुहारकर रख दिया
एक तरफ मैंने

एक दिन
इस ज़िन्दगी की स्याह चादर पर
कुछ इस तरह पिरोया तुम्हारा नाम

नहीं तो ऐसा करो

विवशता की अलगनी पर फैला हुआ हूँ
कपड़े की तरह समेट कर रख लो
अपने संसर्ग में

धागे से छिटके मूँगे की तरह
मैं बिखरा हुआ हूँ
यहाँ
वहाँ
आओ, बटोर लो मुझे

चुल्लूभर पानी और मुट्ठीभर धूल का बना
नाज़ुक खिलौना हूँ मैं
अपने एकांत में मुझे कर लो शरीक

यह पत्तियों के झड़ने का मौसम है
सन्नाटे की गूँज में जंगल डूब रहा है
डूब रहा पंखों का आलोक
उदासी का छाता बेरोक तन रहा है
एक सनसनाहट दौड़ रही है
चारो ओर
कोई अदृश्य धुनकिया मुझे लगातार धुन रहा है...

तुम्हें याद है वह दिन
जब क्षितिज का शामियाना टप्-टप् चू रहा था-
तुमसे अलग होते हुए मैं भर गया था आकंठ
और डर रहा था
तब तुमने डबडबाते हुए कहा था-
“सुनो,मेरी देह और मेरी आत्मा में छुप जाओ !”

उस दिन
मैं तुमसे कुछ न कह पाया था
लेकिन इतना जान गया था
कि एक दिन
एक पल के लिए जब
पृथ्वी की तमाम नदियाँ चुपके से मिली होंगी
तब हुआ होगा तुम्हारा जन्म

तुम्हारे संसर्ग में एक जादू है…

जादूगरनी
यह लो एक तुलसी-दल
इसे मंत्रसिक्त कर मेरे कान में रख दो
सुग्गा बनकर अब मैं
किसी वसंत में उड़ जाना चाहता हूँ …

नहीं तो किसी फूल का नाम लेता हूँ
झट से मुझे तितली बना दो
और अपने ख़ाब में कर लो जज़्ब

नहीं तो ऐसा करो
मुझे पीसकर हवा में उड़ा डालो
और फिर अपने गर्भ में धारण कर लो
अगली बार मैं तुम्हारी देह से जन्म लेना चाहता हूँ

तुम्हें मुक्त करता हूँ

मैं पत्थर छूता हूँ
तो मुझे उन लोगों के ज़ख्म दिखते हैं
जिनकी तड़प में वे पत्थर बने

मैं छूता हूँ माटी
तो मुझे पृथ्वी की त्वचा से लिपटी
विलीन फूलों की महक आती है

मैं पेड़ छूता हूँ
तो मुझे क्षितिज में दौड़ने को बेकल
नदियों के पदचाप सुनाई पड़ते हैं

और आसमान को देखते ही
वह सनसनाता तीर मुझे चीरता हुआ निकल जाता है
जो तुम्हारे पीठ से जन्मा है

मेरे आसपास सन्नाटे को बजने दो
और चली जाओ
यदि मिली
तो अपनी इसी दुनिया में मिलेगी मुझे मुक्ति
तुमसे अब कुछ भी कहने का
कोई मतलब नहीं है
सिवा इसके
कि मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ …

मेरी त्वचा और आँखों से
अपने तन के पराग बुहार ले जाओ

खंगाल ले जाओ
मुझमें जहाँ भी बची है तुम्हारे नाम की आहट

युगों की बुनी प्यास की चादर
मुझसे उतार ले जाओ

एक सार्थक जीवन के लिए
इतना दुःख कुछ कम नहीं हैं…


रविवार, 22 फ़रवरी 2009


पुकार

यदि ठीक से पुकारो
तो चीज़ें फिर आ सकती हैं तुम्हारे पास

यह जो अवकाश
तुम्हारे विगत और वर्तमान के बीच
एक मरुथल सा फैला हुआ है
( तुम्हारे विस्मरण से
तुम्हारा आत्म जो इस तरह मैला हुआ है )
वह कुछ और नहीं
शब्द और अर्थ के बीच की दूरी है केवल
विकलता के सबसे गहन क्षण में जिसे
एक आरक्त पुकार से किया जा सकता है तय

शर्त सिर्फ़ यह है
कि उसे
आकांक्षा की अंतिम छोर पर जाकर पुकारा जाय

एक दिन
जब मैं अपनी भाषा के बन में
खोए हुए एक शब्द के लिए भटक रहा था
यहाँ से
वहाँ
और सोच नहीं पा रहा था कि जाऊँ कहाँ
कि अचानक
असंख्य रन्ध्रों से मुझे फोड़ती हुई
ज्वार की तरह एक पुकार निकली-
जीतपुर!
और मैंने पाया कि अर्थ से डबडबाया हुआ
पके जामुन की तरह भीगा हुआ एक शब्द
अपने डैने फैलाए हुए
मेरी जीभ पर उतर आया है…

ऐसा ही एक और वाकया है
जब शहर से मैं
छोड़े गए तीर सा लौट रहा था अपने घर
और भरी हुई स्मृतियों के साथ
सूखी नदी पार कर रहा था
तब अपनी आँखें बन्द करते हुए मैंने
मन ही मन ज़ोर से पुकारा बिछुड़े हुए दोस्तों के नाम
कि रेत में खोए हुए जिए हुए किस्से तमाम
नाव की चोट बनकर
मेरे घुटनों में कचकने लगे
और मैंने देखा-
धूल उड़ाते शोर मचाते
चालीस बरस पुराने बच्चों को अपने साथ
दौड़कर अपनी ही तरफ आते हुए…

अपने अनुभव से जानता हूँ मैं
कि जिस तरह लोग
दरवाजे पर होनेवाले दस्तक को ही नहीं
ख़ुद अपनी आवाज को भी अनसुना कर देते हैं
चीज़ें उस तरह सुनना बन्द नहीं करतीं
बल्कि वे
हमारी विस्मृति की ओट में बैठी हुईं
हर सच्ची पुकार के लिए उत्कंठित रहती हैं

उनकी अपेक्षा हमसे अगर कुछ है
तो वह यह
कि जब भी पुकारा जाय उन्हें
सही समय पर सही नाम से पुकारा जाय

एक अदृश्य हाथ से भयभीत
रात भर दड़बे में छटपटाता हुआ मुर्गा
जब ओस से भीगी हुई धरती को पुकारता है
तो अगले दिन के शोरबे और स्वाद को निरस्त करता हुआ
एक विस्फोट की तरह प्रकट होता है सूर्य

जब कुत्ते की जीभ से
टप्-टप् चू रहा होता है दोपहर का बुख़ार
तब फटे होंठ सूखे कंठ और सूनी आँखों की पुकार पर
वृक्षों को हहराती पत्तों की कलीन बिछाती धूल की पतंग उड़ाती हुई
एक जादूगरनी की तरह प्रकट होती है हवा

जब दुःख में आकंठ डूबा रहता है तन-मन
जब ख़ुद जीना बन जाता
मृत्यु का तर्पण
तब एक धधकती पुकार ही फिर से संभव करती है वह क्षण
जब जीने का मकसद
मरने के कारण में मिल जाता है

यद्यपि मुझे पता है
कि अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए
फिलहाल कुछ भी नहीं है मेरे पास
लेकिन मेरे अन्तःकरण के जल में झिलमिलाता है
एक छोटा सा विश्वास
कि जिन्हें हम कहते हैं चीज़ें
और जिसके प्रभामय स्पर्श के लिए मर-मर कर जीते हैं
पुकार हैं वे-
उत्कटता के सघनतम क्षणों में
हमारे रक्त से पैदा हुए असाध्य अर्थों की पुकार

और जिसे हम ईश्वर के नाम से पुकारते हैं बार-बार
वस्तुतः इन्हीं पुकारों का एक विराट समुच्चय है वह
जिसके सुमिरन के लिए लिखी जाती हैं कविताएँ
जिसके आवाहन के लिए किया जाता है प्रेम
और जिसे पाने के लिए प्राण दिए जाते हैं

फ़र्क पड़ता है

सिर्फ़ बस्ती के उजड़ने से नहीं
सिर्फ़ आदमी के मरने से नहीं
सिर्फ़ गाछ के उखड़ने से नहीं
एक पत्ती के झड़ने से भी फ़र्क पड़ता है

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

सारंगी

उस आदमी ने किया होगा इसका आविष्कार
जो शायद जन्म से ही बधिर हो
और जो अपनी आवाज़ खोजने
बरसों जंगल-जंगल भटकता रहा हो

या उस आदमी ने
जिसने राजाज्ञा का उल्लंघन करने के बदले
कटा दी हो अपनी जीभ
और जिसकी देह मरोड़ती हुई पीड़ा की ऐंठन
मुँह तक आकर निराकार ही निकल जाती हो

अथवा उसने रचा होगा इसे
जो समुद्र के ज्वार से तिरस्कृत घोंघे की तरह
अकिंचनता के द्वीप पर फेंक दिया गया हो
और जिसकी हर साँस पर काँपकर टूट जाती हो
उसके उफनते हृदय की पुकार

या संभव है
जिसने खो दिया हो अपना घर-परिवार
साथ-साथ रोने के लिए किया हो इसका आविष्कार

इस असाध्य जीवन में
टूटने और छूटने के इतने प्रसंग हैं भरे हुए
कि इसके जन्म का कारण कुछ भी हो सकता है…
एक पक्षी के मरने से लेकर एक बस्ती के उजड़ने तक

इसलिए
जीवन के नाम पर जिन लोगों ने सिर्फ दुःख झेला है
उनकी मनुष्यता के सम्मान में

अपनी कमर सीधी करके सुनिये इसे
यह सुख के आरोह से अभिसिंचित कोई वाद्य यंत्र नहीं
सदियों से जमता हुआ दुःख का एक ग्लेशियर है
जो अपने ही उत्ताप से अब धीरे-धीरे पिघल रहा है

मिट्टी का बर्तन

मैं नहीं कहूँगा कि फिर लौटकर आउँगा
क्योंकि मैं कहीं नहीं जाउँगा

कोहरे के उस पार
शायद ही भाषा का कोई जीवन हो
इसलिए मेरे उच्चरित शब्द
यहीं
कार्तिक की भोर में
धान के पत्तों से टपकेंगे ठोप-ठोप

मेरी कामनाएँ
मेरे विगत अश्रु और पसीने के साथ
दुःख की इन्हीं घाटियों से उठेंगी ऊपर
और जहाँ मैंने जन्म लिया
उसके विदग्ध आकाश में फैल जाएंगी
बादल बनकर

मेरी आत्मा और अस्थियों में रचे-बसे दृश्य
इस गर्द-गुबार इस खेत-खलिहान
इस घर-द्वार में
अपना मर्म खोजने बार-बार आएंगे
इनके बाहर कहाँ पाएंगे वे अर्थ
भला कहाँ जाएंगे

जाना यदि संभव भी हुआ
तो शब्द और दृश्य और कामना के बिना
क्या और कितना बच पाउंगा
कि उसे कहा जा सकेगा जाना


आया हूँ तो यहीं रहूँगा –

आषाढ़ की इस बारिश में
धरती के उच्छवास से उठनेवाली अविरल गंध में

खपरैल के इस अँधेरे घर में
रोज़ दुपहर को लग जानेवाले
सूर्य के किरण-स्तंभ में

चनके हुए इस दर्पण पर
बार-बार आकर
चुपचाप सो जानेवाली धूल के एक-एक कण में

आया हूँ तो यहीं रहूँगा
मैं कहीं नहीं जाउँगा

जहाज का पंछी

जैसे जहाज का पंछी
अनंत से हारकर
फिर लौट आता है जहाज पर
इस जीवन के विषन्न पठार पर भटकता हुआ मैं
फिर तुम्हारे पास लौट आया हूँ

स्मृतियाँ भाग रही हैं पीछे की तरफ़
समय दौड़ रहा आगे धप्-धप्
और बीच में प्रकंपित मैं
अपने छ्लछ्ल हृदय और अश्रुसिक्त चेहरे के साथ
तुम्हारी गोद में ऐसे झुका हूँ
जैसे बहते हुए पानी में पेड़ों के प्रतिबिम्ब थरथराते हैं…

नहीं
दुःख कतई नहीं है यह
और कहना मुश्किल है कि यही सुख है
इन दोनों से परे
पारे की तरह गाढ़ा और चमकदार
यह कोई और ही क्षण है
जिससे गुजरते हुए मैं अनजाने ही अमर हो रहा हूँ…

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

नदी-घाटी-सभ्यता


जब भी नदी में उतरता हूँ
इस दुनिया की
सबसे प्राचीन सड़क पर चलने की उत्तेजना से भर जाता हूँ


मेरी स्मृति में
धीरे-धीरे उभरने लगता है
अपने अभेद्य रहस्य में डूबा हुआ जंगल


धीमे-धीमे…
मुझे घेरने लगती है
किसी अदृश्य सरिसृप के रेंगने की सरसराहट


मुझे याद आते हैं
झुंड में पानी पीते हुए पशुओं के
थरथराते प्रतिबिम्ब
और उनके पीछे
गीली मिट्टी पर बाघ के पंजों के निशान


मुझे सुनाई पड़ती है
कोहरे में विलीन डोंगियों की छपछपाहट
और तट पर दिखाई पड़ती है
छाल और खाल में लिपटे हुए लोगों की चहल-पहल
उठा-पटक


मुझे नदियों के प्रवाहित इतिहास में मिलती है
गुफाओं के चित्रलिखित स्वप्न से फूटकर
बाहर भागती आती हुई
इस जीवन की आदि नदी-कथा

और इसके गर्भ से डूबी हुईं अस्थियाँ कह्ती हैं
बीते समय की अखंडित व्यथा


मिट्टी और पानी से जन्म लेते हुए
मुझे दिखते हैं शब्द
घास की तरह लहलहाती हुई दिखती है भाषा
और अपनी प्रत्येक परिभाषा को तोड़कर
अन्ततः बाहर आता हुआ दिखता है मनुष्य


लेकिन आश्चर्य है
कि एक दिन यही मनुष्य
अपने रक्त से नदियों को निर्वासित कर देता है
और इस जीवन के आदिस्रोत से विछिन्न
अपना-अपना ईश्वर गढ़ लेता है


ठीक यहीं से आरंभ होता है
विस्मरण
का
इतिहास
यहीं आकर एक सभ्यता दम तोड़ देती है
यहीं से शुरू होते हैं आत्मघाती हमले
यहीं आकर नदियाँ
अपनी धारा मोड़ लेती हैं



यहाँ से जल-कथाएँ अपने उदगम में लौट जाती हैं।अनाथ जल-
पक्षी चले जाते हैं परदेस।वनस्पति की अनेक प्रजातियाँ ख़त्म
हो जाती हैं। सूखने लगते हैं पेड़। लोकगीत के हरित-प्रदेश में
धूल उड़ने लगती है। भूसे की तरह झड़ने लगते हैं शब्द और
मर जाता है भाषा का कवित्व।अब भग्न हृदय पानी के लिए
छटपटाने लगता है।पूज़ाघरों में लग जाता है नारियल का ढ़ेर
।मंत्र बन जाते हैं शोर। बीमार लोगों की बाँह पर ताबीज बँध
जाती है।मुक्ति के विभिन्न मॉडलों से भर जाता है बाज़ार और
हरेक चौराहे पर ईश्वर बिकने लगता है।





लेकिन
जो एक दहकते हुए प्रश्न को अपने सीने में भरकर
उस सत्ता को लाँघकर
बहुत पहले ही निकल चुके बाहर
कहाँ मिलेगा अब
उनके तपते शरीर को शीतल स्पर्श
कहाँ मिलेगा उनके व्याकुल हृदय को अब
एकमात्र आश्रय


ख़ैर
चाहे नदी-घाटी-सभ्यता की प्रेरणा नहीं
उस तरल आश्चर्य की स्मृति ही सही
मगर वह है मेरे भीतर पूरी तरह से जीवित


मैं उसकी हरेक बूँद के सामने अपना मस्तक झुकाता हूँ।