सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

सारंगी

उस आदमी ने किया होगा इसका आविष्कार
जो शायद जन्म से ही बधिर हो
और जो अपनी आवाज़ खोजने
बरसों जंगल-जंगल भटकता रहा हो

या उस आदमी ने
जिसने राजाज्ञा का उल्लंघन करने के बदले
कटा दी हो अपनी जीभ
और जिसकी देह मरोड़ती हुई पीड़ा की ऐंठन
मुँह तक आकर निराकार ही निकल जाती हो

अथवा उसने रचा होगा इसे
जो समुद्र के ज्वार से तिरस्कृत घोंघे की तरह
अकिंचनता के द्वीप पर फेंक दिया गया हो
और जिसकी हर साँस पर काँपकर टूट जाती हो
उसके उफनते हृदय की पुकार

या संभव है
जिसने खो दिया हो अपना घर-परिवार
साथ-साथ रोने के लिए किया हो इसका आविष्कार

इस असाध्य जीवन में
टूटने और छूटने के इतने प्रसंग हैं भरे हुए
कि इसके जन्म का कारण कुछ भी हो सकता है…
एक पक्षी के मरने से लेकर एक बस्ती के उजड़ने तक

इसलिए
जीवन के नाम पर जिन लोगों ने सिर्फ दुःख झेला है
उनकी मनुष्यता के सम्मान में

अपनी कमर सीधी करके सुनिये इसे
यह सुख के आरोह से अभिसिंचित कोई वाद्य यंत्र नहीं
सदियों से जमता हुआ दुःख का एक ग्लेशियर है
जो अपने ही उत्ताप से अब धीरे-धीरे पिघल रहा है

मिट्टी का बर्तन

मैं नहीं कहूँगा कि फिर लौटकर आउँगा
क्योंकि मैं कहीं नहीं जाउँगा

कोहरे के उस पार
शायद ही भाषा का कोई जीवन हो
इसलिए मेरे उच्चरित शब्द
यहीं
कार्तिक की भोर में
धान के पत्तों से टपकेंगे ठोप-ठोप

मेरी कामनाएँ
मेरे विगत अश्रु और पसीने के साथ
दुःख की इन्हीं घाटियों से उठेंगी ऊपर
और जहाँ मैंने जन्म लिया
उसके विदग्ध आकाश में फैल जाएंगी
बादल बनकर

मेरी आत्मा और अस्थियों में रचे-बसे दृश्य
इस गर्द-गुबार इस खेत-खलिहान
इस घर-द्वार में
अपना मर्म खोजने बार-बार आएंगे
इनके बाहर कहाँ पाएंगे वे अर्थ
भला कहाँ जाएंगे

जाना यदि संभव भी हुआ
तो शब्द और दृश्य और कामना के बिना
क्या और कितना बच पाउंगा
कि उसे कहा जा सकेगा जाना


आया हूँ तो यहीं रहूँगा –

आषाढ़ की इस बारिश में
धरती के उच्छवास से उठनेवाली अविरल गंध में

खपरैल के इस अँधेरे घर में
रोज़ दुपहर को लग जानेवाले
सूर्य के किरण-स्तंभ में

चनके हुए इस दर्पण पर
बार-बार आकर
चुपचाप सो जानेवाली धूल के एक-एक कण में

आया हूँ तो यहीं रहूँगा
मैं कहीं नहीं जाउँगा

जहाज का पंछी

जैसे जहाज का पंछी
अनंत से हारकर
फिर लौट आता है जहाज पर
इस जीवन के विषन्न पठार पर भटकता हुआ मैं
फिर तुम्हारे पास लौट आया हूँ

स्मृतियाँ भाग रही हैं पीछे की तरफ़
समय दौड़ रहा आगे धप्-धप्
और बीच में प्रकंपित मैं
अपने छ्लछ्ल हृदय और अश्रुसिक्त चेहरे के साथ
तुम्हारी गोद में ऐसे झुका हूँ
जैसे बहते हुए पानी में पेड़ों के प्रतिबिम्ब थरथराते हैं…

नहीं
दुःख कतई नहीं है यह
और कहना मुश्किल है कि यही सुख है
इन दोनों से परे
पारे की तरह गाढ़ा और चमकदार
यह कोई और ही क्षण है
जिससे गुजरते हुए मैं अनजाने ही अमर हो रहा हूँ…

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