रविवार, 29 मार्च 2009


क्या आपको याद है ?

कोई नैतिक आग्रह नहीं
कोई राजनीतिक दबाव नहीं
कोई नागरिक अपेक्षा नहीं

एक अंतहीन बड़बड़ाहट
और निरर्थक दावे के घमासान से
किसी तरह बचते हुए
धूल सी उड़नेवाली…पत्ते की तरह झड़नेवाली...
एक सहज इच्छा से भरकर
यह जानने चला आया हूँ आपके पास
कि पिछली बार कब
बारिश में आपने जी भरकर नहाया था ?
और जीवन का
दुर्लभ पुरस्कार पाने की कृतज्ञता में
विनम्रतापूर्वक एक पौधा लगाया था ?

क्या आप बता सकते हैं
कि पिछली बार कब
खुद को छोटा बनाये बगैर आपने
दूसरे को बड़ा बनाया था ?
और अपने स्तर पर
इस दुनिया को थोड़ा कोमल बनाने के लिए
बस्ती की ओर जानेवाली पगडंडी पर से एक काँटा हटाया था ?

क्या आप कह सकते हैं
कि पिछली बार कब
आकाश को बाँहों में भरकर आप
घास की तरह खुले मैदान में सोए थे ?
क्या आपको याद है
कि दूसरे के दुःख में पिछली बार आप कब रोए थे ?

रविवार, 22 मार्च 2009


तुम उसे अब रोक नहीं सकते

सिर्फ उसकी मुक्ति में संभव है तुम्हारी मुक्ति

इसलिए
कुछ आगे बढ़कर
तुम अगर उसे बुला नहीं सकते
तो कम से कम उसके रास्ते से हँट जाओ

इतने युगों से अपने यातना-घर बंद
अन्ततः जान गई है वह
कि चूल्हा बनने में निहित नहीं है उसकी सार्थकता
इसलिए उसकी देह पर अब तुम
अपनी उफनती इच्छाओं को और पका नहीं सकते

सदियों से अपने पदचिन्ह में अनवरत भटकते हुए
अन्ततः पता चल ही गया है उसे
कि तुम्हारी बनाई हुई तमाम नैतिकता
उसे शिकार बनाने का शास्त्र-सम्मत तरीका है सिर्फ़
इसलिए उसके निर्विकल्प समर्पण और सुन्दरता को
हिरण की खाल की तरह
अब तुम अपने बैठक में सजा नहीं सकते

बेशक किसी और ने नहीं
खुद को पहचानने की
स्वंय उसके दु:खों ने दी है उसे दृष्टि
कि पलंग के नीचे या टेबुल पर ग्लास में रखे पानी
और उसकी नियति के बीच-
धरती और आसमान का अन्तर है
इसलिए अब किसी भी क्षण
गटगट पीकर उसे तुम अपनी प्यास बुझा नहीं सकते

यों यह सच है
कि उसके भीतर एक विराट सरोवर है
और यह भी
कि उसकी प्रकृति में ही शुमार है समरपण
लेकिन इससे अलग भी है उसकी दुनिया
इसके परे भी है उसका जीवन

तुम्हारी अनिच्छा के बावजूद
खिड़कियों को भड़भड़ाती हुई बाहर की हवा
पहुँच चुकी है भीतर

फूल और वनस्पति की खुशबू ओढकर
मार्च महीने के आकाश उसके मस्तिष्क में छा गया है

उसके सीने में दिशाओं ने बना लिए हैं अपने घर
और उसके अभिशप्त घर के परित्यक्त शंख से निरंतर
सागर पुकार रहा है उसे

तुम उसे अब रोक नहीं सकते

पूजाघर से निकलनेवाली अगरबत्ती की मुलायम सुगन्ध की तरह
या एक अदृश्य धागे के सहारे एक अनिश्चित पथ पर अग्रसर
शास्त्रीय संगीत के आलाप की तरह नहीं
इस धरती पर होनेवाली सबसे पहली चीख की तरह
वह
घर से
निकल रही है बाहर…

बल्कि बाहर निकल चुकी है वह

देखो-
उसकी भाषा बदल गई है
उसके कपड़े बदल गए हैं
भंगिमाएँ भी बदल गई हैं उसकी

कल जिस बात को सुनते हुए उसकी आँखें झुक जाती थीं
आज उसे कहते हुए उसकी आँखें चमक रही हैं...

यों अब भी उसके पीछे
दर्द की रेखा-सा खिंचा सन्नाटा है
और आगे है मंडराती एक बेअन्त सनसनाहट
मगर इन दोनों को झंकृत करती
सदियों से दमित उसकी दुर्निवार इच्छाएँ हैं
जो अब बौर की तरह
उसकी बाँहों से भी फूट रही हैं…

कहना चाहिए कि उफनती हुई नदी है वह
और उसकी हसरत
इतमीनान के परिदृश्य को तहस-नहस करते हुए
अपने आगोश में सब कुछ को भरते हुए
उस आबदार तिलिस्म में उमड़कर डूब जाना है-
जिसका एक और नाम है समन्दर

शनिवार, 14 मार्च 2009



तुलसी स्वीट्स

जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था कल तक
आज वह दीवार पर टँगा है

जबकि एक कोने में
पानी से भरा जग रखा है यथावत्
प्लेटों में
उसी तरह मिठाइयाँ सजी हुई हैं
सीढ़ियों के नीचे
पूर्ववत जमी है चप्पल-जूतों की धूल
और ऊपर किराएदार के गमलों में
ज्यों के त्यों लहक रहे हैं तरह-तरह के फूल…

लेकिन कल तक
जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था
आज वह
वहाँ
दीवार पर टँगा है

और दिनों की तरह ही
आज भी
इस सड़क से एक नहाई-धोई सुबह गुज़रेगी

आज भी पसीने से लथपथ एक दोपहर
अपना ठेला सड़क किनारे छोड़कर
किसी ट्रक या पेड़ की छाया में सुस्ताने बैठ जाएगा

आज फिर एक अपराह्न
किसी छोटी-मोटी गाड़ी पर
किसी प्रतिमा को स्थापित कर
प्रसाद लुटाते…
रंग-गुलाल उड़ाते प्रेमतला की और निकल जाएगा

आज फिर ताँत की साड़ी में लकदक एक शाम
नाक को रूमाल से ढँके
गली को पार करती हुई मुख्य सड़क पर आएगी
और किसी घरेलू कथा में व्यस्त
बराक मार्केट की और चली जाएगी...

आज फिर
धीरे-धीरे रिक्शे लौट जाएँगे अपने-अपने ठिकाने पर
एक-एक कर दुकनों के होंगे बंद शटर
फिर समूचा शहर
टीवी धारावाहिक और माछेर झोल में डूब जाएगा
और यह कोई नहीं जान पाएगा
कि कल तक
जो आदमी सामने कुर्सी पर बैठा रहता था- वहाँ
आज वह अपनी निरीह मुस्कुराहट में कैद
दीवार पर टँगा है

मुझे पता है
कुछ दिनों तक उसकी चप्पलें खोजेंगी उसे
कुछ समय के लिए उसका मौन भी हकलाएगा
कुछ अरसे तक उसकी प्यास तड़पेगी
कुछ रातों तक उसका तकिया भी कछमछाएगा

लेकिन एक दिन
उस माला की खुशबू भी
चुपके से छोड़कर चली जाएगी उसे
एक दिन उसका सामान बरामदे पे आ जाएगा
एक दिन उसका कमरा भी लग जाएगा किराए पर
एक दिन वह स्मृति से भी निकल जाएगा

उसी का समाहार

अगर शहर में होता
तो शायद उधर ध्यान भी नहीं जाता
मगर यह
शहर के कहर से दूर विश्वविद्यालय का परिसर था
जहाँ चाय-बागान से छलकती आती अबाध हरियाली
समूचे परिदृश्य को
स्निग्ध स्पर्श में बदल रही थी
और वहीं पर यह अभूतपूर्व घटना
चुपके से
आकार ले रही थी…

दरअसल हुआ यह था
कि क्वार्टर की ओर जानेवाली खुली सड़क के किनारे
एक वृक्ष था
जिसके नीचे एक आदमी खड़ा था

पहली नज़र में
विह्वल करनेवाला ही दृश्य था यह
क्योंकि आदमी के हाथ में कुल्हाड़ी नहीं थी
इसलिए उसे देखने से लगता था
कि सुबह का भूला शाम को लौट आया है…

कि तभी
उसके पौरुष से
एक धार सहसा उछली
और उसके साथ-साथ रिंग-टोन बजने लगा

यह एक नए क़िस्म का यथार्थ था
जिसके सामने मैं खड़ा था
निहत्था

अलबत्ता घटना एक ही थी
पर सत्य थे कई

पहला सत्य कहता था
कि आदमी का उमड़कर बाहर आ रहा है कुछ
इसलिए बज रहा है

दूसरा सत्य कहता था कि वह बज रहा है
इसलिए उससे फूट रही है
जलधारा

तीसरा सत्य कहता था
कि वह सींच रहा है वृक्ष को

और चौथे सत्य को कहना था
कि यहाँ कर्ता नहीं है कोई बस कुछ हो रहा है…

और जो कुछ हो रहा था
यह ॠचा है उसी का समाहार-

सोने की छुच्छी रूपा की धार।
धरती माता, नमस्कार॥

रविवार, 8 मार्च 2009



महानगर में चाँद

महानगर में चाँद को देखकर
मुझे चाँद पर रोना आता है
और चाँद को रोना आता है इस हाल में मुझे पाकर

लगता है
पिछले जनम की बात है यह
जब कातिक की साँझ या बैसाख की रात में
चाँद और मैं
आँगन से दालान
और दलान से आँगन
इस प्रतियोगिता में भागते थे
कि देखें कौन पहुँचता है पहले
(और मैं हर बार हार जाता था उससे
क्योंकि उम्र में मुझसे काफ़ी बड़ा था वह)

या फिर बाद के वर्षों में
जब मेरी हल्की-हल्की मूँछें निकल आईं थीं
और मेरे सीने में अक्सर दुखती हुई शाम
एक उदास आवारगी में लपेटकर मुझे
यहाँ-वहाँ चली जाती थी-
तब चाँद ही था मेरा सहचर
जिसके मुलायम कंधे पर मैं रखता था अपना सर

लेकिन कुछ ही वर्षों बाद
हम दोनो ऐसे बिछड़े
जैसे ब्याह के बाद बिछुड़ती हैं
गाँव की जुड़वाँ बहनें
और उसका समाचार तभी-तभी पाया
जब दुःख ने उसे घेरा
जब ग्रहण ने उसे खाया

…और आज
इतने युगों बाद
जब हम हैं आमने-सामने
तो कातरता से रूंधा है मेरा गला
कुछ कहते बने न कुछ सुनते बने

महानगर में
गुमशुदा की तलाश में निकले
बड़े भाई सा जर्जर चाँद
चाँद का धूसर विज्ञापन लगता है
बस की खिड़की से बार-बार बाहर झाँकता हुआ मैं
लगता हूँ एक खोए हुए आदमी का विज्ञापन
तथा धरती और आसमान से वंचित
त्रिशंकु की तरह
बीच में लटका हुआ
घर
देखो घर का कैसा विज्ञापन लगता है

वे तीन

ढेर सारे शब्द हैं उसके पास
एवं घटना
अथवा दुर्घटना को
जीवंत तथा प्रामाणिक बनाने के लिए
उसके पास उतनी ही चित्रात्मक और मुहावरेदार भाषा है
जितनी यह दुर्लभ समझ
कि सिर्फ़ वह जानता है कि हकीक़त क्या है

दूसरे के पास
खून में लिथड़ा हुआ चेहरा
और एक अटूट थरथराहट के सिवा
कहने के लिए कुछ भी शेष नहीं है
या तो जान बचाने में कट गई है उसकी जीभ
या वह बताने के काबिल ही न रहे
इसलिए काट ली गई है

जिसने सबसे निकट से जाना इस बर्बरता को
उसे ज्यों का त्यों बताने के लिए
अब हमारे बीच नहीं है

अन्तर्विरोध

अपने इस छोटे से जीवन में
इतने प्रतिभाशाली इतने योग्य इतने सच्चे लोगों को
सड़क पर धूल फाँकते
और दर-ब-दर भटकते देखा है

और दूसरी तरफ
इतने लिजलिजे इतने धूर्त ऐसे फिसड्डियों को
सफलता के मंच पर मटकते देखा है
कि लगता है
हमारे समय में विफलता ही
योग्यता की सबसे बड़ी कसौटी है