रविवार, 8 मार्च 2009



महानगर में चाँद

महानगर में चाँद को देखकर
मुझे चाँद पर रोना आता है
और चाँद को रोना आता है इस हाल में मुझे पाकर

लगता है
पिछले जनम की बात है यह
जब कातिक की साँझ या बैसाख की रात में
चाँद और मैं
आँगन से दालान
और दलान से आँगन
इस प्रतियोगिता में भागते थे
कि देखें कौन पहुँचता है पहले
(और मैं हर बार हार जाता था उससे
क्योंकि उम्र में मुझसे काफ़ी बड़ा था वह)

या फिर बाद के वर्षों में
जब मेरी हल्की-हल्की मूँछें निकल आईं थीं
और मेरे सीने में अक्सर दुखती हुई शाम
एक उदास आवारगी में लपेटकर मुझे
यहाँ-वहाँ चली जाती थी-
तब चाँद ही था मेरा सहचर
जिसके मुलायम कंधे पर मैं रखता था अपना सर

लेकिन कुछ ही वर्षों बाद
हम दोनो ऐसे बिछड़े
जैसे ब्याह के बाद बिछुड़ती हैं
गाँव की जुड़वाँ बहनें
और उसका समाचार तभी-तभी पाया
जब दुःख ने उसे घेरा
जब ग्रहण ने उसे खाया

…और आज
इतने युगों बाद
जब हम हैं आमने-सामने
तो कातरता से रूंधा है मेरा गला
कुछ कहते बने न कुछ सुनते बने

महानगर में
गुमशुदा की तलाश में निकले
बड़े भाई सा जर्जर चाँद
चाँद का धूसर विज्ञापन लगता है
बस की खिड़की से बार-बार बाहर झाँकता हुआ मैं
लगता हूँ एक खोए हुए आदमी का विज्ञापन
तथा धरती और आसमान से वंचित
त्रिशंकु की तरह
बीच में लटका हुआ
घर
देखो घर का कैसा विज्ञापन लगता है

वे तीन

ढेर सारे शब्द हैं उसके पास
एवं घटना
अथवा दुर्घटना को
जीवंत तथा प्रामाणिक बनाने के लिए
उसके पास उतनी ही चित्रात्मक और मुहावरेदार भाषा है
जितनी यह दुर्लभ समझ
कि सिर्फ़ वह जानता है कि हकीक़त क्या है

दूसरे के पास
खून में लिथड़ा हुआ चेहरा
और एक अटूट थरथराहट के सिवा
कहने के लिए कुछ भी शेष नहीं है
या तो जान बचाने में कट गई है उसकी जीभ
या वह बताने के काबिल ही न रहे
इसलिए काट ली गई है

जिसने सबसे निकट से जाना इस बर्बरता को
उसे ज्यों का त्यों बताने के लिए
अब हमारे बीच नहीं है

अन्तर्विरोध

अपने इस छोटे से जीवन में
इतने प्रतिभाशाली इतने योग्य इतने सच्चे लोगों को
सड़क पर धूल फाँकते
और दर-ब-दर भटकते देखा है

और दूसरी तरफ
इतने लिजलिजे इतने धूर्त ऐसे फिसड्डियों को
सफलता के मंच पर मटकते देखा है
कि लगता है
हमारे समय में विफलता ही
योग्यता की सबसे बड़ी कसौटी है

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