रविवार, 25 जुलाई 2010

इसका क्या मतलब है



ड्योढी के टाट पर
खीरे के पात की हरी छाँह के नीचे
मेरी बाट जोह रही होगी मेरी लालसा….

रात की शाखों से उतरकर रोज़
गिलहरी की तरह फुदकती हुई
मुझे खोज रही होगी मेरी नींद…

मेरे स्वप्न
मेरी अनुपस्थिति पर सर रखकर सो रहे होंगे
और मेरे हिस्से का आसमान
अनछुए ही धूसर हो रहा होगा…

इसका क्या मतलब है
कि जहाँ लौट पाना अब लगभग असंभव है
वहीं सबसे सुरक्षित है मेरा वजूद ?


समय को चीरकर (कविता संग्रह;1998) से,
प्रकाशक:आधार प्रकाशन प्रा लिमिटे़ड,पंचकूला(हरियाणा)

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

समाप्ति पर



नहीं
समाप्ति पर नहीं
पार्टी तो असली रौनक पर आई है अब

जिनके पास दुख थे
वे दस्ताने पहनकर और बहाने ओढकर
अपनी-अपनी दुनिया में लौट चुके हैं

जिन्होंने गम मिटाने के लिए ग्लास उठाया था
वे तीसरे पैग पर लड़खड़ाने लगे
और पाँचवें पर आते-आते
रोते-बड़बड़ाते
अन्ततः
धराशायी हुए

लेकिन जिनकी पोर-पोर में भरा था सुख
और भीतर कहीं कोई पछतावा नहीं था
उन्होंने अपने आखेट का चयन कर लिया तुरन्त

और अब उन्हें
अर्जुन की तरह दिख रही
सिर्फ़ चिड़िया की आँख

और आँख अब है-
दहकते हुए एक चाकू का नाम
जो एक दूसरे के भीतर उतर रही है…

और होंठ
कथनी को करनी में बदल रहे जल्दी-जल्दी…

और जिह्वा ने
हाथों को अप्रासंगिक कर दिया है फौरन

और अब देह
अपनी आदिम आभा से उछलकर
पार्क में पत्थर की बेंच बन गई है

और शेष दुनिया सो रही है बदहवास…

और पेड़ की पत्तियों से
रात के आँसू गिर रहे हैं टप-टप…

और आसमान में डूब रहा है एक चाँद…
और ख़त्म हो रही है एक दुनिया…
और मर रहा है एक कवि…
और झड़ रहा है एक फूल……

रविवार, 6 दिसंबर 2009

हिजड़े




एक

कहना मुश्किल है कि वे कहाँ से आते हैं

खुद जिन्होंने उन्हें पैदा किया
ठीक से वे भी नहीं जानते उनके बारे में

ज़्यादा से ज़्यादा
पारे की तरह गाढे क्षणों की कुछ स्मृतियाँ हैं उनके पास
जिनकी लताएँ फैली हुई हैं
उनकी असंख्य रातों में

लेकिन अब
जबकि एक अप्रत्याशित विस्फोट की तरह
वे क्षण बिखरे हुए हैं उनके सामने
यह जानकर हतप्रभ और अवाक हैं वे
कि उनके प्रेम का परिणाम इतना भयानक हो सकता है

लेकिन यह कौन कह सकता है
कि सचमुच उनके वे क्षण थे
प्रणति और प्रेम के?

क्या उनके पिताओं ने
पराजय और ग्लानि के किसी खास क्षण में किया था
उनकी माँओं का संसर्ग?

क्या उनकी माँओं की ठिठुरती आत्मा ने
कपड़े की तरह अपने जिस्म को उतारकर
अपने-अपने अनचाहे मर्दों को कर दिया था सुपुर्द?

क्या उनके जन्म से भी पहले
गर्भ में ही किसी ने कर लिया उनके जीवन का आखेट?

दो

वासना की एक विराट गंगा बहती है इस धरती पर
जिसकी शीतलता से तिरस्कृत वे
अपने रेत में खड़े-खड़े
सूखे ताड़-वृक्ष की तरह अनवरत झरझराते रहते हैं

संतूर के स्वर जैसा ही
उनकी चारो ओर
अनुराग की एक अदृश्य वर्षा होती है निरंतर
जिसे पकड़ने की कोशिश में
वे और कातर और निरीह होते जाते हैं

अंतरंगता के सारे शब्द और सभी दृश्य
बार-बार उन्हें एक ही निष्कर्ष पर लाते हैं
कि जो कुछ उनकी समझ में नहीं आता
यह दुनिया शायद उसी को कहती है प्यार

लेकिन यह प्यार है क्या?

क्या वह बर्फ़ की तरह ठंडा होता है?
या होता है आग की तरह गरम?
क्या वह समंदर की तरह गहरा होता है?
या होता है आकाश की तरह अनंत?
क्या वह कोई विस्फोट है
जिसके धमाके में आदमी बेआवाज़ थरथराता है?
क्या प्यार कोई स्फोट है
जिसे कोई-कोई ही सुन पाता है?

इस तरह का हरेक प्रश्न
एक भारी पत्थर है उनकी गर्दन में बँधा हुआ
इस तरह का हरेक क्षण ऐसी भीषण दुर्घटना है
कि उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे

और यह जो गाते-बजाते ऊधम मचाते
हर चौक-चौराहे पर
वे उठा लेते हैं अपने कपड़े ऊपर
दरअसल वह उनकी अभद्रता नहीं
उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है
जिसने उन्हें बनाया है
या फिर नहीं बनाया

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

अकेले ही नहीं



मैं उन कहावतों और दंतकथाओं को नहीं मानता
कि अपनी अंतिम यात्रा में आदमी
कुछ भी नहीं ले जाता अपने साथ

बड़े जतन से जो पृथ्वी
उसे गढकर बनाती है आदमी
जो नदियाँ उसे सजल करती है
जो समय
उसकी देह पर नक्काशी करता है दिन-रात
वह कैसे जाने दे सकता है उसे
एकदम अकेला?

जब पूरी दुनिया
नींद के मेले में रहती है व्यस्त
पृथ्वी का एक कण
चुपके से हो लेता है आदमी के साथ
जब सारी नदियाँ
असीम से मिलने को आतुर रहती हैं
एक अक्षत बूँद
धारा से चुपचाप अलग हो जाती है
जब लोग समझते हैं
कि समय
कहीं और गया होगा किसी को रेतने
अदृश्य रूप से एक मूर्तिकार खड़ा रहता है
आदमी की प्रतीक्षा में।

हरेक आदमी ले जाता है अपने साथ
साँस भर ताप और जीभ भर स्वाद
ओस के गिरने की आहट जितना स्वर
दूब की एक पत्ती की हरियाली जितनी गंध
बिटिया की तुतलाहट सुनने का सुख
जीवन की कुछ खरोंचें,थोड़े दुःख
आदमी ज़रुर ले जाता है अपने साथ-साथ।

मैं भी ले जाउँगा अपने साथ
कलम की निब भर धूप
आँख भर जल
नाखून भर मिट्टी और हथेली भर आकाश
अन्यथा मेरे पास वह कौन सी चीज़ बची रहेगी
कि दूसरी दूनिया मुझे पृथ्वी की संतति कहेगी!


आधार प्रकाशन, पंचकूला द्वारा प्रकाशित
समय को चीरकर(1998)कविता संग्रह से

सोमवार, 31 अगस्त 2009

उसी का समाहार




अगर शहर में होता
तो शायद उधर ध्यान ही नहीं जाता
मगर यह
शहर के कहर से दूर विश्वविद्यालय का परिसर था
जहाँ चाय-बागान से छलकती आती हुई अबाध हरियाली
समूचे परिदृश्य को
स्निग्ध स्पर्श में बदल रही थी
और वहीं पर यह अभूतपूर्व घटना
चुपके से
आकार ले रही थी…

दरअसल हुआ यह था
कि क्वार्टर की ओर जानेवाली खुली सड़क के किनारे
एक पेड़ था
जिसके नीचे एक आदमी खड़ा था

पहली नज़र में
विह्वल करने वाला ही दृश्य था यह
क्योंकि आदमी के हाथ में कुल्हाड़ी नहीं थी
और उसे देखने से लगता था
कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है…

कि तभी
उसके पौरुष से
एक धार सहसा उछली
और उसके साथ रिंग-टोन बजने लगा

यह एक नए किस्म का यथार्थ था
जिसके सामने मैं खड़ा था
निहत्था
अलबत्ता घटना एक ही थी
पर सत्य थे कई

पहला सत्य कहता था
कि आदमी का उमड़कर बाहर आ रहा है कुछ
इसलिए बज रहा है
दूसरा सत्य कहता था कि वह बज रहा है
इसलिए उससे फूट रही है जलधारा
तीसरा सत्य कहता था
कि वह वृक्ष को सींच रहा है
और चौथे सत्य को कहना था
कि यहाँ कर्ता नहीं है कोई
बस कुछ हो रहा है…

और जो कुछ हो रहा था
यह मंत्र है उसीका समाहार-

सोने की छुच्छी,रूपा की धार।
धरती माता, नमस्कार॥

मंगलवार, 23 जून 2009

इस जीवन में


देखकर ही लगता है
कि तुम बहुत आह्त हुए हो

हमेशा की तरह
अपमान की एक और लहर
पिछले असंख्य अपमानों के ज़हर के साथ
एक बार फिर निगल चुकी है तुम्हें
और एक बार फिर
अपनी अटल पीड़ा में असहाय
हतप्रभ और अवाक हो तुम

यद्यपि तुम जानते हो
कि यह
पहली घटना नहीं है तुम्हारे जीवन में
और न ही अंतिम होगी यह

फिर भी तुम्हें एक उम्मीद है खुद से
कि इस जीवन में अपने झरझर दुःख से
कुछ ऐसा रचोगे
कि खत्म होने के बाद भी बचोगे
और अंतत: साबित कर दोगे खुद को
(जैसे खुद को साबित करना
प्रतिशोध का एक नया तरीका हो)

वैसे तुम्हें पता है
कि रचना की रणभूमि में खुद को साबित करना
अपनी केंचुल को उतारते जाना है तब तक
जब तक कि त्वचाहीन शरीर पर
रक्त की बूँदें ही न छलछला आएँ
और शेष रह जाए
सिर्फ उतप्त ह्रदय का विसर्जित होना

लेकिन
यह तुमसे बेहतर और कौन जानता है
कि छोटी से छोटी चीज़ को
उसके असली नाम से पुकारने की ज़िद में
एक आदिम शब्द की आवाज़ के लिए तुम
ऐसे रहते हो उत्कर्ण
जैसे एक भूखा मछुआरा
जलाशय में बंसी डालकर
पहरों
सामने टुकुर-टुकुर ताकता रहता है…

इसलिए
अपने युग के बारे में सोचते हुए
तंदूर के ऊपर सलाखों में
झूलते हुए जो मुर्गे का बिंब
बार-बार तुम्हारे मस्तिष्क में आता है उभरकर
वह तुम्हारी चेतना पर बाज़ार का हमला नहीं है
बल्कि तुम्हारा इतना दुर्निवार
और इतना अंतरंग अंश है वह
जिसे थोड़ा कव्यात्मक बनाकर
तुम अपना रूपक भी नहीं कह सकते

रविवार, 17 मई 2009

पर्यटन


इतनी तेज रफ्तार से चल रही यह दुनिया
इतनी जल्दी-जल्दी
अपने रंग बदल रही यह दुनिया
कि सुबह जगने के बाद
पिछली रात का सोना भी
लगता है समय की पटरी से उतर जाना

रोज दिनारम्भ से पहले
न किसी से कुछ कहना न किसी की सुनना
एक कप चाय के सहारे
घंटा आधा घंटा मेरा चुप रहना
बेतहाशा भागती हुई इस दुनिया के साथ
एक काम चलाउ रिश्ता बनाने के प्रयास हैं मात्र

यों मैं जानता हूँ
कि मेरी गाड़ी छूट चुकी है पिछली रात को ही
मुझे पता है कि मेरे लिए कोई आरक्षित सीट नहीं
पर आदतन यों ही
रोज सुबह के स्टेशन पर खड़ा होकर
मैं करता हूँ उसकी प्रतीक्षा

रोज-रोज की यह प्रतीक्षा
मेरे घर से शहर की ओर जानेवाली एक बैलगाड़ी का नाम है
जिस पर मैं अपने बाल-बच्चे कपड़ा-बस्तर बर्तन-बासन
लस्तम-पस्तम के साथ सवार होकर
जीवन के पर्यटन पर निकला हूँ